सन्यासी (तन्त्र-मन्त्र की दुनिया ) -11



सन्यासी (तन्त्र-मन्त्र की दुनिया ) -11









सेरिया के जाते ही सन्यासी डोम राज की ओर मुड़े , ,," करिया ,, रख दे सार सामान आसान के पास , ,,," अब तू अपने लडको के साथ जा यहाँ से " ,,
डोम राज अलख के साथ बिछे आसान तक गए , ससम्मान धीरे से सारा सामान और वो महात्मा का छोटा एयर बैग , जो हमने कल रात भी देखा था , रखा , अपने दो सहायकों को वहां से विदा किया और पलट कर महात्मा के पास आ गए !
डोम राज ने सहायकों के जाने का इंतज़ार किया , उनके जाते ही महात्मा के पैरो में झुक गए , ,," बाबा , कुछ घड़ी और रुक सकता मैं" डोम राज की आवाज़ दयनीह हो उठी थी
"
नहीं करिया ,,,,,, तूने बड़ी सेवा की मेरी , माता तुझे इसका फल देंगी ! किसी बात की चिंता ना करना ,,, अब जा यहाँ से " महात्मा ने गम्भीर स्वर में समझाया !
फल तो आपने ही दे दिया बाबा , अब और क्या चाहिए बाबा , बस मुझे आपके साथ ही रहना है ! डोम राज रूवासे से हो उठे थे!
"
नहीं करिया ,,,,, बस अब तू जा साले जिद ना कर "
,,,,,,,,
बाबा ,,,,,,, डोम राज ने आखिरी कोशिश की
महात्मा नीचे झुके , डोम राज को उठाया , गले से लगा लिया ! ' एक प्यार भरी झिड़की आयी , तू तो सब जानता है रे , फिर भी ये बाल हठ! जाता है की लगाऊ दो लात मैं !
डोम राज अनमने भाव से पीछे मुड़े, और भारी कदमो से चलते हुवे अंधकार में विलीन हो गए !

डोम राज जा चुके थे ! अब उस नदी के रेतीले किनारे पर में था और चाचा श्री थे,! ,,,, और था भाय भाय करता वह महा नीरव शमशान ! हम दोनों के आलावा ,,, कोई शरीरी शै नहीं , कोई अशरीरी शै नहीं उस माहा वीराने में ! नदी की कल कल करती आवाज अब उस सन्नाटे में कानो को बड़ी तेज़ सुनाई देने लगी थी ! क्षीण चन्द्र का मद्यम प्रकाश अपर्याप्त था पर इतना अवश्य था की हम वस्तुवों को देख सके !
सागर ,,, विधि विधान से मूर्ति का विसर्जन संपंन्न करो पुत्र ! सन्यासी दो कदम चलकर मेरे पास आये और बोले !
जो आज्ञा महात्मन ,,,, मैं मूर्ति को अपनी हाथो में उठाये नदी में उतरा , और मंत्रोचारण करते हुवे विसर्जन कर दिया ! तदोपरांत नदी में स्नान किया और बाहर आकर चाचा श्री के चरण स्पर्श किये !
"
बाबा ये महा पूजा के आयोजन का उद्देश्य समझ नहीं आया मुझे !" ,,,,,, अब जब कोई और नहीं था तो मैंने अपना प्रश्न रखा!
पुत्र , तुम इसे महा पूजा ना कहके महा भोग कह सकते हो ! ,,,,,,,,,,सन्यासी जी ने बताया !
आज आमंत्रण है अँधेरे के साम्राज्य के बासिंदों को ,,,,, दूसरे आयाम की शक्तियों को ,,,,,,,, अशरीरियो को ,
महा भोग !!!!!!! ,,,,मैं चौक कर बोला ,,,,,,, मुझे तनिक भी समझ ना आया ! ,,,,,,,,,,लेकिन क्यों बाबा , वो भी इतनी सारी शक्तियों को ! किसी मानव शक्ति पुंज को गिराना है क्या ?
नहीं पुत्र ,,,,,,,,,,,, उन्हें तृप्त करना है ,,,,,, क्योकि उन्होंने मुझे तृप्त किया है , ,,,,,,, ! महात्मा बोले
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, ,,,,
बरसो बरस तृप्त किया है ,,,,,, यही तो रहे है मेरे संगी साथी ,,,,,,,,सन्यासी ने अपनी बात समाप्त की ,,,,,,,,,एक पल को वो यादो में खो से गए !
और फिर तुम्हे भी इन्हे नजदीक से जानने और समझने का मौका मिलेगा ,,,,, वैसे तुम्हे किसी के दर्शन भी करने है पुत्र ! सन्यासी पुनः बोल उठे !
तो चाचा श्री ने मेरा प्रशिक्षण भी प्रारम्भ कर दिया , ,,,,,,,मैंने मन ही मन सोचा ,,,,,,,, मन में तो और भी सैकड़ो सवाल गूंज रहे थे , लेकिन अभी मैंने और कुछ पूछना उचित ना समझा !
"
समझ गया बाबा ,,,,, आगे क्या आदेश है ! ",,,,,,,,,,,,,मैंने पूछा , ,,,,
तांत्रिक महा ग्रन्थ सम्भालो पुत्र ,,,,,, देखो करिया ने आसन के पास रखा होगा ! महात्मा ने मुझे याद दिलाया !
जी चाचा श्री ,,,,,,
मैं अलख आसान तक गया और वो बहुत छोटी सन्दूकची उठा ली जिसमे महा ग्रन्थ था . उसे खोला, ग्रन्थ निकाला ,,,,,,,,,,, अपने माथे से लगाया और फिर सन्दूकची में रख दिया !
"
सागर ,,,, इधर आओ पुत्र ! ",,,,,,,,,,, चचा श्री ने मुझे बुलाया
वो मुझे अलख से काफी दूर एक किनारे ले गए , मुझे रुकने को कहा .! फिर मंत्रोच्चारण के साथ अपने मूत्र से एक गोल घेरा बनाने लगे ! घेरा पूर्ण होते ही उनका तीक्चन मंत्रोचार समाप्त हुवा !
सागर , अब चाहे कुछ भी हो जाये ,,,,, धरती फट जाये या आसमान पृथ्वी पर आ गिरे ! , अब सूर्योदय से पूर्व तुम्हे इस घेरे से बाहर नहीं निकलना है ! तुम तो साधक हो , समझते हो न इस बात को !
तो चाचा श्री ने रक्क्षा घेरा बनाया है मेरे लिए ,,, मैंने मन ही मन सोचा और बोल उठा ,,,, जैसी आज्ञा चाचा श्री !
मैं , ग्रन्थ की सन्दूकची लिए घेरे में दाखिल हो गया , महा सन्यासी भी घेरे में आये , मुझे गले से लगाया , कुछ पल मेरी पीठ पर प्यार से हाथ फेरते रहे फिर मुड़े और घेरे के बाहर निकल गए !
बाहर निकल कर उन्होंने एक बार फिर से अस्पष्ट सा मंत्र पाठ किया और अपने पैरो के पास से थोड़ी सी मिटटी उठकर घेरे में डाल दी ! घेरे का रक्क्षण पूर्ण हो गया था ! अब वह लगभग अजेय था !

मेरी निगाहे जाते हुवे चाचा श्री को ताकती रही ! एक अनिश्चितता का माहौल मेरे अंदर घर कर गया था ! क्या क्या होगा आज यहाँ ?????? ,,,,,,
सन्यासी अपने आसान तक आये और सभी भोग सामग्री एक एक कर देखते गए , जैसे उनका क्रम याद रख रहे हो ! कुछ चीजे उन्होंने हाथ में ले कर भी देखी , ! संतुस्ट हो अपने आसान के पास आये , बगल में अपना त्रिशूल गाड़ा और शिव का नाम जपते हुवे आसान पर जा विराजे !
आसन की बाई ओर एक लाइन से कम से कम शराब की एक दर्जन बोतलें रखी हुवी थी ! चाचा श्री ने एक बोतल उठाई , किसी मजे हुवे बार टेंडर की सफाई से उसका ढक्कन खोला ,,,,,,और ,लगा लिया मुंह से , और जब बोतल वापस नीचे आयी तो वो लूट चुकी थी ,,,,,,, लगभग खाली ही हो चुकी थी वह बोतल !
उस लगभग खाली बोतल को उन्होंने अपने आसान से दूर पीछे उछाल दिया , एक अंगड़ाई ली और अपनी भारी भरकम आवाज़ में अलख नाद किया ,,,,,,, उनकी आँखे एक बार फिर से अघोर ताप से सुलग रही थी , , उन्होंने गुरु नमन किया दिग्पालो को नमन किया ,,,,, चारो दिशाओं में दृष्टिपात किया , क्षेत्रपालो को नमन किया , जल , पृथ्वी आकाश को नमन किया ,, अलख पूजन किया ,,,,,,और ,,,,,,बम ,,,,,,,,, बम ,,,,,,,,का घोर नाद करते हुवे अलख प्रज्वलित कर दी ! सामान्यतः शमशान के बासिंदों को भी भोग दिया जाता है , परन्तु आज तो कोई था ही नहीं ,,,, भोग दे तो किसको दे !
अलख धधक उठी थी , आसपास उसका प्रकाश फ़ैल गया ! , अभी तक सीमित चंद्रप्रकाश में धुंधली नजर आती वस्तुए अब स्पष्ट फृष्टिगोचर होने लगी थी ! महात्मा ने अपने छोटे बैग से फिर से वही तीन कपाल निकाले और अलख के दाएं सजा दिए ,! तीन दिए जलाए और उन्हें मंत्र पड़ते हुवे कपालो के ऊपर स्थापित कर दिया ! अलख में थोड़ा और ईंधन डाला और अलख प्रसाद के रूप में सामग्री अर्पित करने लगे !
महा भीषण महात्मा की महा अलख अब अपने पुरे वेग के साथ हवा में लपलपा रही थी !

कल कल कर बहती नदी के किनारे अलख वेदी से उठती पीली रोशनी से नहाए सन्यासी का रौद्र रूप बड़ा विहंगम था ! महात्मा मंत्र पाठ के साथ अलख आहुति देते जा रहे थे ! मैंने मंत्रो पर कुछ ध्यान दिया और सिहर उठा , चाचा श्री ब्रम्हा पिशाच का आह्वाहन कर रहे थे !
ब्र्म्ह पिशाच , एक दूसरे आयाम का ईश रचित पारलौकिक प्राणी , अजेय सी परामानवीय शक्तियों से लैस परन्तु शांतचित ! अपनी पे आ जाये तो निचली श्रेणी के देवो को भी पछाड़ दे ! प्रकृति के रहस्यों का प्रकांड विद्वान ! खुश हो जाये तो साधक पर ज्ञान के खजाने लुटा देता है ! रुष्ट हो जाए तो आपकी प्रेत योनी पक्की है !
कुछ घड़ी मंत्र पाठ चलता रहा ! . बाबा ने कुछ और सामग्री अलख में झोंकी ! मंत्र अब क्लिष्ट होते जा रहे थे , और उसके साथ साथ आकाश का एक हिस्सा बाकी हिस्सों से थोड़ा प्रकाशित सा दिखने लगा था ! कुछ धवल वलय से बनने लगे थे वहाँ! अलख घुम्र भी ऊपर उठता हुवा वलय में प्रविष्ट होता सा जान पड़ रहा था !
बाबा मंत्र आह्वाहन के उपसंहार की और अग्रसर थे ! अंतरिक्ष में वलय अब स्पस्ट दृष्टिगोचर था ! अचानक वलय के केंद्र से एक तेज स्वेत प्रकाश पुंज निकला और अलख से कुछ दूर पानी के ऊपर हवा में केंद्रित हो गया ! बाबा का मंत्रोचारण अब सम्पूर्ण हो चूका था , उनकी निगाहे भी अब उन स्वेताम्बित प्रकाश रश्मियों पर केंद्रित थी !
मेरा ये ब्रम्ह पिशाच का प्रथम दर्शन था , सही कहा था चाचा श्री ने , मुझे किसी के दर्शन करने है , तो क्या वो मुझे महा शक्तिशाली ब्रम्ह पिशाच के दर्शनार्थ ही यहाँ लाए थे ?
मैंने अपने सर को झटक कर मानो मन में घुमड़ते विचारों को से पीछा सा छुड़ाया ! मनुष्य जाती से सर्वाथ! अंजान इस प्राकृतिक तेज़ पुंज के अवलोकन का कोई भी छन मैं गवाना नहीं चाहता था !
स्वेत प्रकाश पुंज नदी के जल से कुछ मीटर ऊपर केंद्रित होना शुरू हो गया ! प्रकाश में कुछ बनती बिगड़ती परछहिया सी तैरने लगी ,,,,,,, और एक चहरे का सृजन शुरू हुवा !
कुछ कुछ किसी बुजुर्ग मनुष्य सा चेहरा , परन्तु बहुत लम्बा ,,,,,,,, मनुष्य के धड़ पर रख दिया जाए तो हमारे सीने तक आये .! चहरे के अनुपात में कुछ लम्बी नाक , बाहर की तरफ निकले दोनों कान , पतले कमज़ोर से दिखते होठ और बहुत तीक्ष्ण परन्तु बहुत सुन्दर नीली आँखे ! सर के बाल , भोहे , सब कुछ एक दम पटसन की तरह सफ़ेद ! धड़ तक का हिस्सा स्वेत प्रकाश में चमकता , किन्तु कमर के नीचे का हिस्सा धुंधला सा था ! ऐसा लग रहा था की जैसे वो ब्रम्ह पिशाच अपने पैरो की तरफ से नदी जल में घुलता जा रहा हो !

"प्रणाम हे ब्रम्ह पिशाच , दर्शन का आभारी है ये आपका साधक ",,,,,,,, अपना आह्वाहन मंत्र पूर्ण कर चुके महात्मा अपने आसान से उठे , और दूधिया रोशनी में दमकते ब्रम्ह पिशाच को ह्रदय प्रणाम किया !

झील सी नीली , नीलम सी दमकती ,,,,,,एक जोड़ी दुनिया की सबसे सुन्दर आँखे थोड़ी झुकी और बाबा पर केंद्रित हो गयी ! " प्रणाम हे महासाधक , मुझे तो आना ही था तुम्हारे बुलावे पर " धीर गम्भीर ध्वनि वतावरण में गूंज गई!

बाबा ने तत्परता से एक बॉस की टोकरी उठा ली , जिसमे कुछ भोग सामग्री भरी हुवी थी , कुछ खाद्यान , कुछ पूजन के वस्त्र , साही का मांस , काले तिल,धुप ,, और भी बहुत कुछ ,
बाबा ने बॉस की टोकरी को दोनों हाथो से ऊपर उठा लिया , और अपना सर झुका कर बोले ,,,,,"हे ब्रह्म , अपने सांसारिक साधक की ये तुकछ भेट स्वीकार करे "
ब्रम्ह पिशाच के बीमार से लगते पतले होठ तनिक खींच से गए , मुस्कुरा रहा था वो महाबली ,,,,, " अवश्य साधक ,,,,,,,,, हम प्रसन्न हुवे ,,,,,,, मेरे आह्वाहन का प्रयोजन बताओ " पिशाच की आवाज़ में एक अजीब सा ठहराव था !
"
आप से क्या छिपा है हे प्रकृति के महाज्ञाता,,,,,,, बस अपने ज्ञान का आशीर्वाद दे इस सेवक को ! जब चाहू मिलने का आशीर्वाद दे "
उस महाज्ञाता के होठ एक बार फिर से खींचे ! , " अब क्या ज्ञान अधूरा रह गया साधक " ,,,,,,,,ब्रह्म पिशाच की आखो से मानो मधुर नीली रश्मियाँ सी निकलती प्रतीत हो रही थी !
"
ज्ञान की प्यास कहा कभी बुझी है ,, ये महाज्ञाता ! अभी तो कुछ अँजुली ही प्राप्त हुवी है " , बाबा ने एक बार फिर अपना सर सम्मान में झुकाया .
जैसा तुम ठीक समझो हे महान साधक , परन्तु अब तुम्हे मेरे पास तक आना पड़ेगा ! अब तो तुम भी आ सकोगे मुझ तक ,,,,,,,,,,, मैं नहीं आउगा अब तुम्हारे पास ,,,,,,, इस बार पिशाच ने कहकहा सा लगाया
"
आपकी बात समझ गया हे ब्रम्ह , जैसा आपका आदेश , वो महा सन्यासी भी मुस्कुराने लगे !

प्रकाश से घिरे पिशाच के धवल शरीर से उसका दाहिना हाथ आगे बड़ा ,,,,,,,,,,और बढता ही गया ,,, तब तक लम्बा होता गया ,,,, जबतक वो बाबा के पास तक नहीं पहुंच गया ,! धवल रोशनी की एक आभा सी फ़ैल गयी ब्रम्ह पिशाच से सन्यासी तक !
ब्रम्हा पिशाच ने सन्यासी के सर पर आशीर्वाद का हाथ रखा , जिसे बाबा ने तनिक गर्दन झुका कर स्वीकारा ,

तभी रोशनी का एक तेज़ धमाका हुवा,,,,,,, , मेरे आँखे चौंदिया सी गयी !
आँखे जब फिर से देखने लायक हुवी तो बाबा के सामने कोई नहीं था , ! वही अलख की पीले रोशनी अँधेरे से लड़ने की कोशिश कर रही थी ! अंतरिक्ष में घूमता वो प्रकाशित वलय अब भी धीरे धीरे घूम रहा था , परन्तु उसकी रोशनी अब क्षीण पड़ती जा रही थी ! ,,,,,,

,,,,,,,,,,,,,
ब्रम्ह पिशाच जा चुके थे ! ,,,,

और मैं उस रक्षित घेरे के अंदर मुंह फाडे , ईश्वर की बनाई इस कायनात का वो रहस्यमयी रंग देखता रहा जिसे देखना मेरे जैसे सांसारिक मनुष्य के लिए सरवथा असम्भव था !

रात के तीसरे प्रहर तक यु ही वो महाभोज चलता रहा ! कई पिशाच आये , कई महाप्रेत आये , डाकिनी , शाकिनी , प्रेत और वेताल आये , सबने अपना भोग लिया , और चले गए ! शमशान क्षेत्र की परिधि के बाहर ,,,, नदी के उस पार ,,,, नाग आये ,, यक्ष और गन्दर्व आये ,,,,बौने आये ,,,,झिलमिल सितारों सी जगमगाती नन्ही नहीं परिया आयी ! और भी कई योनी के जीव आये
ऐसा लग रहा था जैसे सारा पारलौकिक ब्रह्माण्ड ही उस महाभोज में उतर आया हो ! और में , विस्मित नेत्रो से ब्रह्माण्ड के इन नवीन रहस्यों से परिचित होता रहा ,
निम्न श्रेणी की शक्तियां भी अपना भोग लेकर जा चुकी थी , नटुआ और दिमिका भी दिखे ! आज वो डरे हुवे नहीं थे , मनो सबको अभयदान मिला हो .

रात्रि का अंतिम प्रहर शुरू होने को था , महाभोग समाप्ति की और अग्रसर था ! पारलौकिक प्राणी अपना भोग इत्यादि लेकर जा चुके थे ! अलख की लपटे भी तनिक मंद पड़ गई थी,,,,,,,,, मानो रात भर लपलपाती लपटे थक गई हो और अब विश्राम करना चाह रही हो ! महात्मा ने अलख में थोड़ा और ईधन झोका ,,, अंकुश प्रहर से व्यथित गजराज सा लपटे फिर से उठ खड़ी हुवे और अति दीर्घ सर्प की जिह्वा सी उर्धगामी हो लपलपाने लगी !
महात्मा ने अलख में कुछ और सामग्री डाली जिससे पूरा वातावरण ही स्वर्ग की सुगंध सा महक उठा , पद्मासन में बैठे बाबा ने आप अपनी आँखे बंद कर ली , और फिर मुझसे अभुझ भाषा में उनका मंत्र पाठ शुरू हुवा .! पहले तो मंत क्लिष्ट ही रहे ,,, पर धीरे धीरे उनमे करूणा घुलने लगी ,,, एक भजन का सा भाव महसूस होने लगा !
बाबा का मंत्र पाठ कुछ देर तक चलता रहा , वो अपने तांत्रिक भजन रूपी मंत्र पाठ में खोते से चले गए ! और साथ में खोता चला गया मैं ! मेरी तो मानो सोचने समझने की शक्ति ही खत्म हो गई थी !
आज शमशान का वो कोना एक सम्मोहित कर देने वाली शांति और आनंद से भर गया था ! नदी का जल भी कल कल करता मानो बाबा के भजनों में ताल मिला रहा था ! मैं ये खुद भी जान ना सका की कब मैं भी पद्मासन की मुद्रा में बैठ गया और आँखे बंद कर के बाबा के मंत्र पाठ के श्रवण में लीन हो गया !




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