सन्यासी (तन्त्र-मन्त्र की दुनिया ) -02

 
सन्यासी (तन्त्र-मन्त्र की दुनिया ) -02

दमन कुछ देर तर दोनों स्तम्भों और दीवार के खंडहर का ध्यान पूर्वक निरीक्छन करते रहे फिर आगे बढ़ के परिक्रमा में पहुंच गए। बहुत ध्यान देने पर ही वो परिक्रमा सा लग लगा नहीं तो वो पूरा केवल पुराने पत्थरो का बेतरतीब ढेर ही दिखता था
पंडित जी , ये कम से कम ५०० वर्ष पुराना शक्ति उपासना स्थल प्रतीत हो रहा है। परन्तु सही सही तो पुरे अनुसन्धान के बाद ही बताया जा सकता है। दमन ने अपनी सोच साझा की
भाई मेरे , हम सन्यासी से मिलने आये है या "पहलवान" जी की पुरततविक खोज में भाग लेने आये है। रतन जी ने अपने पुराने मित्र दमन को छेड़ा। हम सब को सामान्य देख कर अब वो भी थोड़ा सामान्य हो चले थे। 
अरे तो क्या आँखे मुद कर खोजु सन्यासी को। अरे यार , मंदिर में आ गए देखने तो बस देख भर रहा हु। आपकी किडनी में उबाल क्यों आ रहा है। ददन जी आदत के हिसाब से थोड़ा चीड़ कर बोले
मैंने बीचबचाव सा किया , अच्छा सुनिए , में थोड़ा गर्भ गृह एक बार और देखना चाहता हु।
चलो जी फिर देख लेते है , उसमे क्या है। दोनों साथ ही बोल पड़े
मैंने और दमन ने अपने जेब में रखे अभिमंत्रित सिक्के को जेब के ऊपर से ही थपथपाया कर उपस्थिति सुनिश्चित की। एक अंजान शमशान के खँडहर हो चुके मंदिर में वो ही हम तीनो का प्राथमिक रक्छा कवच था । रतन जी को अपने और दमन के बीच में लिया और खँडहर में अंदर की और चल पड़े
हम सभी गर्भ गृह में एक बार फिर पहुंच गए। में थोड़ा शक्ति स्थल का जायजा अपने शोध कार्य हेतु लेना चाहता था।
अष्टभुजा आकार में बना गर्भ गृह हमारी टार्चों की रोशनी में अपने ध्वस्तवशेषो के साथ भी अत्त्यन्त भव्य प्रतीत हो रहा था ! फर्श पर धूल धुसित पैरो के निशान भी दिखे , जिससे प्रतीत हो रहा था की कोई और भी फ़िलहाल में ही अवश्य आया होगा यहाँ।
मन में प्रश्न उपजा कौन ??? लेकिन उत्तर नदारत था

उन्नत मूर्ति स्थान के सामने ही एक गहरा वर्गाकार हवन कुंड था। मूर्ति स्थान पर भी छत के टूटे पत्थर गिरे हुवे थे। हवन स्थल भी मिटटी और धूल से अटा पड़ा था। हवन स्थल के आगे बलि वेदी सा एक शिला खण्ड विद्यमान था। शीला खण्ड का घिसाव उसपर होने वाली अनगिनत बलियो का प्रमाण सा लग रहा था
हमारी घूमती टार्च की रोशनी पुरे गृह में नाच रही थी , में थोड़ा आगे बढ़ कर बलि वेदी तक पंहुचा। धूल धुसित फर्श पर हमारे कदमो के गहरे निशान पड़ते जा रहे थे।
अचानक ददन ने हमें टोका , ,,,,,,,,पंडित जी , मेरे जूतों के नीचे कुछ अजीब सा लग रहा है।
हमारी तीनो टॉर्च ददन के जूतों की तरफ घूम गई। तब तक ददन ने अपने पैर वापस खींच लिए थे
कोई कंकड़ तो नहीं चुभ गया। ,,,,,,,,,,, मैंने पूछा
नहीं पंडित जी , कुछ लिजलिजा सा है। पता नहीं क्या है धूल में मिला हुवा
मैंने ध्यान से उस जगह को टोर्च की रोशनी में देखा। थोड़ी सी धूल हाथ में ली
मिट्टी रक्त मिश्रित थी। कुछ ४ या ५ एक घंटे का काफी सुख चूका रक्त। हा थोड़ी तरलता बाकी थी अभी
क्या है ये , प्रश्न कौंधा मष्तिष्क में।
किसी जानवर का शिकार ?
या बलि कर्म।
निगाहे फिर से वेदी की तरफ गई।
थोड़ा ध्यान से देखने पर धूल के नीचे से रक्त के निशान झांकते दिखे
ऐसा कैसे हो सकता है ?
बिना विग्रह के बलि कर्म ?
या मात्र वेदी भोग एक भक्त का

वेदी पर रक्त तिलक का निशान वेदी भोग सा ही प्रतीत हो रहा था। लेकिन प्रश्न था की किसने दिया ये भोग और इससे वो बिना विग्रह के कोण सा कार्य सिद्ध करना चाहता था।
हमने थोड़ा बहुत और गर्भ गृह का निरीक्छन किया और लौट चले बाहर की ओर।
हमने बहार आकर चारो तरफ निगाहे दौड़ाई। अभी भी सन्यासी का कही भी अता पता ना था

बस शमशान पूर्ण जागृत स्वरुप में विद्यमान था। पहले की तीनो चिताएं तो थोड़ी मंद सी पड़ गई लगती थी पर चौथी चिता पूरी तरह धधक रही थी। डोम एक लम्बे बॉस के सहारे आधे से अधिक जल चुकी चिताओ में शव को वयवथित करने में लगे थे जिससे उनका दाह अच्छी तरह से हो। बड़ा ही विहगम दृश्य था

मित्रों मृत्यु के जयघोष का ब्रम्हनाद है शमशान। जीवन के रंग मंच पर जिंदगी के नाटक का समापन दृश्य है शमशान। विश्व की नश्वरता का जीता जगाता प्रमाण है शमशान। कफ़न में जेब ना होने का ज्ञान हे शमशान।
क्या लेकर आये थे , क्या लेकर जाएंगे के उत्तर को स्वय सिद्ध होता देख कर बरबस ही वैराग्य जागृत होता है मित्रो। जीवन की छन भंगुरता के एहसास से बचे हुवे समय के मूल्य का ज्ञान हो आता है। सद्कर्म की लालसा जाग जाती है।

शमशान के इस जागृत स्वरुप और वेदी के रक्त तिलक ने फिर से रतन जी को विचलित करना शुरू कर दिया। मैंने दमन को उन्हें जिप्सी तक छोड़ आने को कहा। थोड़ा न नुकुर कर के रतन जी जाने को तैयार हो गए। वेदी पर रक्त और शमशान के स्वरुप को देख कर उन्होंने वापस जाना ही उचित समझा।
हम सदा जिप्सी को शमशान से दूर ही खड़ा करते थे। वैसे भी जिप्सी पूर्ण सुरक्छित थी। मेरे गुरु श्री विजयानंद महाराज की देन सिद्ध भैरव कवच हमारी गाड़ी में प्रतिष्ठापित है । इस कवच के रहते तो कोई महाशक्ति ही गाड़ी में बैठे व्यक्ति का कुछ बिगाडे तो बिगाड़े , नहीं तो और किसी के सामर्थ्य के बाहर है ये कवच ।
दमन जी के जाते ही मैंने फिर से शमशान में चारो तरफ नज़रे घुमानी शुरू की। चिता आलोक में मुझे मंदिर के सामने वाले पेड़ के नीचे कुछ हलचल सी दिखाई दी। कुछ स्वान भी दिख थे। तभी मुझे एक मानवकृत का भी एहसास हुवा वहा। मेरे कदम स्वतः ही चल पड़े कीकर के पेड़ की और जिसके नीचे हलचल सी दिखी थी।
पास आकर मानवकृत कुछ स्पष्ट सी हुवी। चन्द्रोदय हो चूका था। दग्न चिताओ का अलोक फैला था वहां ।

उसके नेत्र रोशनी में चमकते से लगे , उम्र का अनुमान नहीं लगा सका। हत्ता कट्टा शरीर। चहरे का रंग कुछ कुछ गेहुंआ सा लगा। बाकी शरीर का तो भभूत और मैल की परतों के बीच काल सा ही दिखता था . गले में दसियों मालाएं पडी थी। कुछ तांत्रिक अस्थि कवच भी गले में विद्यमान थे । अंगुलिमाल के भुज दण्ड। कलाई पर मनको की माला। वह पेड़ के नीचे दोनों पैर पसारे बैठा था और गोद में पड़ा थी किसी पंछी का भुना हुवा गोश्त ! जिसे वो नोच नोच के खा रहा था। 

सधे कदमो से में सन्यासी की और बड़ा। पर कुछ दूरी पर ही रुकने को मजबूर हो गया । कुछ स्वान मेरी मौजूदगी से काफी नाराज से दिख रहे थे। एक दो ने तो गुर्रा कर अपनी नाराजगी भी व्यक्त कर दी। नाराज भी क्यों न हो , उनके और उनके " प्रिय " के भोज में खलल डालता सा लग रहा था ना।
स्वान दल की चेतावनी देख में दो कदम पीछे हट कर वही खड़ा हो गया। सन्यासी इन सब बातो से निश्चिन्त मांस खाने में व्यस्त थे। बीच बीच में बगल में रखी मदिरा की बोतल पे भी हाथ साफ कर लिया करते थे. खाते खाते कुछ मांस के टुकड़े स्वान दाल की तरफ भी उछाल देते जिसे प्रतिकछा रत स्वान दर बड़ी सफाई से लपक लेता।
मैंने भी इस पार्टी में विग्न डालना उचित नहीं समझा और प्रतिकछा करने का निर्णय लिया। कुछ १५ या २० मिनटो के पश्यात सहसा सन्यासी उठ खड़े हुवे।
बाबा प्रणाम ,,,,,,, मैंने अभिवादन किया
उसकी चमकदार आँखे मेरी ओर घूमी , उसने मेरी ओर देखते हुवे अपना त्रिशूल उठाया और हलके कदमो से मंदिर के खंडहरों की तरफ जाने लगा।
पहली बार उस सन्यासी के त्रिसूल पर मेरी निगाहे गई। तीनो ही फलक त्रिभुजाकार से। थोड़ा नीचे एक डमरू लटका था। ज्यादा तर ऐसे त्रिभुजाकार फलक वाले त्रिसूल आसाम के आस पास के डेरों के औघड़ प्रयोग करते है।
त्रिशूल का बीच वाला फॉल काला सा पड़ा दिखता था। लगरहा था मानो सन्यासी को त्रिसूल का रक्तभिषेख करने की आदत थी।
सन्यासी के पीछे पीछे में मंदिर के दरवाज़ों के ध्वस्तवशेषो तक पहुंच गया।
मैंने एक बार पुनः अभिवादन किया।
इस बार वो ठिठका , पीछे मुड़ा ,, जलती निगाहो से मुझे घूरा।
मैंने फिर से कहा , बाबा प्रणाम ,,,
चल भाग यहाँ से भिखारी ,,,नहीं तो प्राण ले लूंगा , सन्यासी की आवाज में गुस्से का पटु था।
बाबा में कुछ मांगने नहीं आया , बस दो घड़ी आपसे बात हो जाती तो।
भिखमंगा ही है तू ,,,, नीच. ,,,,देख आपने को ,,,,,,, झांक अपने अंदर ,,,,,,,,,,,,,,, सन्यासी के आवाज़ में गुस्सा बरक़रार था।
बाबा आपके कुपित होने का कारन नहीं समझ सका में। ,,,,,,,, मैंने संतुलित शब्दों किया।
जुबान लड़ाता है पापी , लौट जा , प्राण बचा ले अपने । इस बार वो थोड़ा झुंझलाया सा लगा
सन्यासी के बार बार लताड़ने से में थोड़ा निराश होने लगा।
कैसा सिद्ध हो सकता है ये , इतना उदंड।
बाबा , आप कहे तो आपकी सेवा में कल उपस्थित होऊ। मैंने एक और कोशिश की की बात चीत आगे बड़े
तू लगता है मरेगा आज , डाकिनी तेरा कलेजा खाने को उतावली दिख रही हे।
ये इतना आसान तो नहीं है बाबा। में भी उसकी उदंडता पर थोड़ा खीज गया था।
अच्छा ,,, इतना घमंड , ,,,,,,,,,,वो भी टोटको पे ,,,,,,,,,, हा हा हा हा हा हा
,
उसका कर्कश आट्टाहास श्मशान में गूंज उठा
अचानक नुझे अपने सीने पर कुछ जलन सी महसूस होने लगी ,,,, 

अचानक उठी सीने में जलन इतनी तेज़ थी की मेरा हाथ स्वतः ही मेरे सीने तक पहुंच गया। पहले तो मैंने इसे तांत्रिक ह्रदय शूल भेदन क्रिया समझ कर उसकी काट को तत्पर हुवा लेकिन फिर समझ आया की मेरे जेब में पड़ा तांबे का सिक्का कवच है जो बहुत गर्म हो गया है।

विकराल औघड़ का शमशानी अट्टाहास जारी था



सिक्का इतना गर्म महसूस हो रहा था की मुझे लगा कही मेरी पतली कॉटन की शर्ट में आग ही ना लग जाये। एक बार मन आया के सिक्का निकाल के जमीन पर रख दू। आखिर उसके कवच के घेरे में में फिर भी रहता, फिर वीरान शमशान में एक अज्ञात औघड़ के सामने मुझे ये तरीका ठीक न लगा। मैंने तुरंत रक्छा मंत्र का जाप शुरू किया। मंच का प्रभाव शुरू हुवा , धीरे धीर जलन काम होने लगी। लेकिन मुझे लग रहा था की सीने पर फफोले तो पड़ ही गए होंगे।

इस बीच वो औघड़ पत्थरो से नीचे उतर आया था। उसकी जलती आँखे अभी भी मुझे दिलचस्पी से देख रही थी।
मेरी बिगड़ी हालत उसे आनन्दित कर रही सी लगती थी।
फिर से ठहाका लगाया उसने , क्यों रे पापी , कवच को भी मंत्र कवच चढ़ा रहा है। बड़ा आया था , ये इतना आसान नहीं है कहने वाला ,,,
चल तेरा टोटका व्यर्थ रहा , अब भाग जा यहाँ से। टोटका टूट गया न तो शाकिनी खड़ी है इंतज़ार में , उसने मुझे डराने की फिर कोशिश की
अब तक जलन खत्म हो चुकी थी , में भी थोड़ा व्यवस्थित हो चुका था , ,,, बाबा में यहाँ आपसे टक्कर लेने नहीं आया हु। बस आपका आशीर्वाद मिल जाये यही लालसा है।,,,,,, मैंने अपने को यथा शक्ति विनयशील बनते हुवे कहा ।
साले भिखारी , आ गया न अपनी औकात पर ,,,, , चल भाग यहाँ से। जा ,,,, आपने दोस्त की भी सुधि ले , देख कही भटक गया लगता है।
अचानक मेरा ध्यान दमन की तरफ गया। क्या इशारा कर रहा है ये मनहूस। दमन को तो रतन जी को छोड़कर बहुत पहले आ जाना चाहिए था। कही वो किसी संकट में तो नहीं। इस जागृत शमशान में वो केवल उस सिक्के के रक्छा कवच में था। और में भी साथ नहीं था
बाबा क्या हुवा उसे,,,,,, क्या किया आप ने ? ... मेरे शब्द अब रूखे हो उठे थे. मुझे भयानक ताव आ रहा था अब
हँसा वो औघड़ सन्यासी , कुछ नहीं हुवा बच्चे। बस रास्ता भूल गया है , जा मिल ले उसे
अब मुझे कुछ और न सुझा , मुंडा और दौड़ पड़ा शमशान के मुहाने की तरफ। दिमाग में केवल दमन की कुशलता सुनिश्चित करना था। सच कहु तो औघड़ के अप्रयासित प्रहार और दमन का इस जागृत शमशान में आधे घंटे से मुझसे दूर होना मुझे चिंता में डाल गया।
मुहाने पर पहुंच कर आवाज लगाना शुरू किया , ,,,,
दमन ,,,,,, दमन ,,,, मेरी आवाज़ उस वीरान हौलनाक शमशान में गुज रही थी
तभी दमन मुझे दौड़ता हुवा अपनी ओर आता दिखा। पीछे पीछे प्रह्लाद सिंह भी दौड़े चले आ रहे थे।
क्या हुवा ,,,,, दमन ने आते ही सवाल दागा। क्यों चीक पुकार मचा रहे हो। ,,,,,, दमन घबराया हुवा था
शायद मुझे शमशान में इस तरह उन्हें पुकारते सुन कर उन लोगो को किसी अनहोनी का अंदेशा हो गया था।

हद है भाई। कहा रह गए थे तुम। तुम्हे तो रतन जी को छोड़ कर आना था न। मैं दमन को सुरक्छित देख थोड़ा सामान्य हो चूका था
आया तो था , आ कर सब जगह ढूढ़ा भी आपको , पर आपही कही नहीं मिले मुझे। में तो वापस जिप्सी के पास गया ,,की , ,,आप सन्यासी को ना पाकर कही जिप्सी की तरफ तो नहीं लौट गए। दमन ने अपनी स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की।
चलो कोई बात नहीं। चलो वापस चलते है। ,,,,,,, मैंने कहा
यानी आप वही थे उस समय ,,,,,,,,,,,, दमन की आवाज़ में आश्चर्य का पटु। ,,,,,,, क्या सन्यासी मिला आपको ?
बताता हु जी। थोड़ा साँस तो ले लो। चलो वापस चलते है। ,,,,,,,में बात टाल गया।
हम सब टहलते हुवे उस स्थान की तरफ चल पड़े जहां हमारी जिप्सी खड़ी की गई थी





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