सन्यासी (तन्त्र-मन्त्र की दुनिया ) -03



सन्यासी (तन्त्र-मन्त्र की दुनिया ) -03

सुनो दमन , ज़रा याद करके बताओ , जब तुम वापस आये मुझे ठूँढने तो क्या तुमने मंदिर की तरफ भी देखा था। मैंने अब जरूरी सवाल किया
देखा होगा जरूर ,,,,, , पंडित जी कुछ ठीक ठीक याद नहीं आ रहा है। ,,,,,,, दमन ने कुछ सोचना शुरू किया।
मैंने तो पुरे शमशान में आपको खोजा , लेकिन मुझे याद क्यों नहीं आ रहा है की मैंने मंदिर की तरफ देखा था या नहीं। दमन अभी भी थोड़ा भ्रमित सा दिख रहा था।
हु ,,,,,,,,, में सोच में पड़ गया
यानी सच में ही दमन को भटकाया गया था की वो उस समय वह उपस्थित न रहे जब में औघड़ के सम्मुख था। ,,,,,,,,,, लेकिन कैसे ?
क्या भुलवाना भुत का प्रयोग। ,,,,,,,, ?
लेकिन वो तो शमशान वासी नहीं होता
और तो और वो तो अभिमंत्रित सिक्के के रहते पास फटक भी नहीं सकता था।
फिर ,,,,,,???
क्या फिर सम्मोहन या उच्चाटन जैसा कुछ प्रयोग ??
लेकिन कब हुवा ? ...
प्रश्न दिमाग में तैरते रहे और हम आगे बढते रहे
पंडित जी कुछ बताओगे भी ? सन्यासी मिला क्या ? दमन जी के फिर से बोलने से मेरी तन्द्रा भंग हुवी 
हा दमन जी , सन्यासी से मुलाकात हो गयी। आसाम की तरफ के कदीया औघड़ लगे वो। ,,,,,, मैंने बताया
कुछ बात हुवी क्या ? ,,,,,,,, दमन ने फिर पूछा
हा भाई , हुवी , चलो गाड़ी में बताता हु।
आ गए हम सब गाड़ी में। रतन जी विचलित से जिप्सी के पास टहलते मिले
क्या हुवा था ? ..,,,,,,,,,, पहुंचते ही पूछा उन्होंने
कुछ नहीं , बस दमन को न देखा तो पुकार रहा था। ,,,,,,,, मैंने संछिप्त सा उत्तर दिया।
वो और भी बहुत कुछ पूछना चाहते थे लेकिन कुछ सोचा कर चुप रह गए
जिप्सी में आकर सबसे पहले मैंने अपनी शर्ट खोली और जेब के पास की त्वचा देखी। वो लाल पड चुकी थी। यानि रक्छा मंत्र में तनिक भी विलम्ब मुझे घायल या कवच विहीन कर सकता था।

सो मित्रो , अब उस शमशान में उस दिन के लिए करने को कुछ था नहीं। इसलिए जिप्सी घुमाई और लौट चले रतन जी के घर की तरफ।
रास्ते में मैंने संछिप्त में ही सन्यासी से मेरी मुलाकात के बारे में सब को बता दिया। दमन को थोड़ा गुस्सा भी आया की उनपर उच्चाटन का एक त्वरित दृष्टि प्रयोग किया गया और मुझपर मंत्र प्रहार। एक बार तो गाड़ी मोड़ के सबक सीखने को भी तत्पर हो लिए। फिर खुद ही स्थिति की गम्भीरता समझ कर चुप भी हो गए।

इन सब क्रिया कलापो में ९ बज चुके थे। उस आपाधापी से दूर अब सब लोग सामान्य हो चले थे.
दमन को ही याद आया,,,,,, बोल उठे ,,,,,, पंडित जी कहे तो कुछ रंग पानी हो जाये।
अरे , अभी तो कल ही तो इतना माल खींचा था। आज फिर से रंगीनी सवार हो गई ? .. मैंने ठिठोली की
अब क्या करे , इश्क तो इश्क ही हॉवे है भाई। दमन किसी खानदानी आशिक़ सा बोल उठा
रतन जी की आँखे बड़ी हो आयी। क्या ??? इश्क। ये नया बखेड़ा क्या है
मत पूछो रतन सेठ , बड़ा पुराना इश्क है जी। जब भी याद आती है कलेजा फुक डालती है।
अरे हुवा कब , जो मुझे भी नहीं पता अभी तक ? . रतन जी अभी भी अचंभित थे
पंडित को सब पता है , पूछ लो इनसे ही। मुझे मुस्कुराता देख दमन ने गेंद मेरे पाले में उछाल दी। 
पंडित जी , ये दमन जी क्या कह रहे है ? ठकुराइन के आलावा भी कोई चक्कर पाल के बैठे है क्या ? ,,, रतन जी अगली सीट से मेरी तरफ मूड कर बोले।

ठकुराइन के अलावा चक्कर " का जिक्र सुनके मुझे हँसी आ गई। भाभी जी थोड़े स्वास्थ्य बदन की है और मिर्जापुर के सूर्यवंशियों की बेटी है। हमारे महान ठाकुर रिपुदमन सिंह की सिट्टी पिट्टी गुम रहती है ठकुराइन के सामने। अब क्या खा के वो चक्कर का सोच भी सकते है।

मैंने उपसंहार प्रस्तुत किया ,,,, अरे नहीं रतन जी , ठाकुर साहब विस्की के इश्क में वयाकुल है.! उनको विस्की की तलब महसूस हो रही है।
हो तेरी की ,,, में तो सकते में पड़ गया भाई,,,,,,,,,,,,,,,,,, अपनी दोस्त की सलामती को सोच के ।,,,,,,,,,,,,,, रतन जी बोल पड़े
सलामती की बात कहा से आयी भाई , दमन बीच में कूदा
सलामती की बात यु की,,,,,, मुझे तुम्हारे पीछे बेलन लिए ठकुराइन खड़ी दिखने लगी थी। और आपका रोबदार नाम अमर जवान की दीवार पे खुदा नज़र आने लगा था की फला तारिख को एक और बाँदा इश्क के मैदान में अपनी जान गवा बैठा । अबकी रतन जी ने चुटकी ली और फिर ठहाका मार के हस भी दिए , ,,,,,,,,,,,,,,,मैंने भी साथ दिया उनका , दमन पहले तो खिसियाया हुवा सा बाहर देखने की एक्टिंग करता रहा , फिर हमारी हँसी में खुद भी शामिल हो गया।

बस यु ही हँसी मज़ाक में हम रतन जी के जानने वाले होटल पर आ गए। रतन जी में बहुत कहा की वो सब घर पर ही सब वयवस्था कर देंगे , लेकिन हमारा ये सिद्धांत था की यात्रा प्रवास में हम रंग पानी कभी भी किसी के घर पे नहीं करते थे। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है की अधिकांश घर की महिलाओं को इस प्रकार का प्रयोजन अपने घर पे बुरा लगता है।

फिर हुवा रंग पानी शुरू , खींचे गए विस्की के गिलास पर गिलास , और शुरू हुवी पुरानी बातें और हँसी ठहाके। सन्यासी का जिक्र आया , पर कल देखे गए कह के ताल दिया गया।
घर पहुंचते पहुंचते काफी समय हो गया था। गर्मी का भी बुरा हाल था। सो सब कुछ छोड़ कर कूलर की हवा में लंबी तानकर अपने अपने घोड़े खोल दिए जी हमने 
सुबह सो कर उठे , स्नान आदि हुवा। अपने इष्ट भगवन विश्वनाथ की उपासना की। माता गौरी का मातृ रूप में ध्यान किया। ध्यान में उछलता कूदता जा के माता के चरणों में लोट गया। माँ ततछन नीचे झुकी और मुझे गोद में उठा लिया। उनके आकाशगंगा सदृश्य वस्त्र मेरे बालक शरीर पर लगे धूल मिटटी से गंदे हो रहे थे। लेकिन माँ तो मुझे पुचकारने और दुलारने में स्वस्त थी। घ्यान टुटा तो मेरी आँखे नम थी पर मन पुलकित हो उठा था । होठो पे मुस्कान खिल उठी। अभय का एहसास जाग गया। अखिल ब्रह्माण्ड में किसकी इतनी सामर्थ्य की वो माँ की गोद में अटखेलिया करते शिशु का अहित कर सके। चाहे वो ध्यान की कल्पनाओं में ही क्यों न हो।

मित्रो ,,,ध्यान की उड़ान में कभी कभी रोने भी लगता हु । ,,,,,, ,,,,, माँ से शिकायत करता सा महसूस करता हु। क्या शरारत कर दी मैंने जो मृत्यु लोक में भेज दिया माँ । अरे शरारत कर भी दिया तो क्या हुवा। तुम तो बैठी ही थी न छमा करने को। फिर क्यों ? .,,,,,,,,,,,,,,,

..
माँ मुझ अबोध बालक को देख कर मुस्कुराती सी दिखती है । मानो कह रही हो की ,,,,, अब तुम्हे कैसे सम्झाउ पुत्र। तुम अभी छोटे हो , नासमझ हो। कैसे सम्झाउ की ये श्रिष्टि कर्म प्रधान है। सबको अपने अपने कर्म करने पड़ते है। जन्म जन्मांतर के कर्म से ही भाग्य का निर्माण होता है । भाग्य , विवेक और ईश भक्ति का प्रसाद मिल कर नितति का निर्माण करते है। और नियति फिर से कर्म का। ये चक्र यु ही चलता जाता है जबतक मनुष्य अपने सद्कर्मो से मोक्छ न प्राप्त कर ले।

प्रश्न ये उठता है की सद्कर्म क्या है । क्या सिर्फ कर्म कांड। कर्म कांड भी उपयोगी है ! लेकिन सत्कर्म का बहुत थोड़ा सा ही हिस्सा है ये कर्म कांड , अधिकांश सुव्यवस्थित कर्म कांड हमें सद्कर्मो की तरफ ही ले जाते है ( कुछ मनगढंत और काफी बाद में किसी के स्वार्थ वश या तत्कालीन सामाजिक उद्देश्यों हेतु उल्लेखित कर्म कांडो के अलावा )
फिर आगे का सद्कर्म कैसे हो ???
रास्ता भी प्रभु ने ही दिया है !
ईश्वर ने हमें प्यार की पूजी दी है। सुपात्र चुनने को विवेक दिया है। सही गलत का फैसला करने को अन्तरत्तमा। सद्कर्म करने को और क्या चाहिए। सब कुछ तो दिया है।
हर सुपात्र को प्यार करना होगा।
क्योकी जब हम सुपात्र से प्रेम करना शुरू करते है तो , लोभ मोह ईर्ष्या द्वेश निंदा इत्यादि दुर्भावनाएं स्वतः ही भाग जाती है और। सेवा , प्रेम , करुणा , सहायता आनंद इत्यादि सदभावनाएँ जागृत हो जाती है
और इसी से उदय होता है सत्कर्म का
संसार में प्यार का सबसे सुपात्र कौन ?
अपनी जननी , अपनी माँ
माँ के बाद सबसे सुपात्र कौन।
और कौन होगा मित्रो , खुद ईश्वर , मालिक , देवी माँ। जिन्हे भी आप इष्ट मानते हो।
सारे जहां के मालिक को हम निरीह मानव दे भी क्या सकते है। सिर्फ प्यार , सिर्फ प्रेम। विशुद्ध प्रेम।

इस संसार के प्रायः सभी महापुरुषों ने यही कहा है। हर सुपात्र को,,,,,,," प्यार बांटते चलो ",,,,,,,,, कई गुना होके वापस मिलेगा हमें। सन्तुष्टि तो प्यार करना शुरू करते ही साथ में आके पास बैठ जाएगी। और खुशियों का क्या है , वो तो सन्तुष्टि की प्रिय सहेली है। उसे तो साथ आना ही है।
हा हमारे कर्म ,फल,,,,,,, अच्छा या बुरा ,,,,, वो तो साथ चलेगा ही। 
नास्ते के लिए हम सब बैठक में ही बैठ गए। आज नास्ते में आलू भरी कचौड़िया थी , कबूली चने के साथ। खुशबु से ही भूख दो गुना हो गई जी। सबने नाश्ता खत्म किया और चाय के कप पकड़ के दालान ने आ गए।
सुबह का ९ बजे का वक्त था। सूर्य देवता अभी तक क्रोधित नहीं हुवे थे। सुबह की सुहानी हवाओं का शोर अभी थोड़ा ही सही,, बाकी था।
पंडित जी , अब आगे कैसे बढ़ा जाये ,,,,,,,, दमन ने बात शुरू की। बाबा तो हाथ ही नहीं रखने दे रहा है।
वही तो में भी सोच रहा हु दमन जी। अब किया भी क्या जाये जब वो महानुभाव बात भी करने को तैयार नहीं है। ऊपर से बात न मानने पर तंत्र प्रयोग ,,,,,,,,,,,,,,, मैंने जबाब दिया
लेकिन पंडित जी आप क्यों चुप रहे। कुछ दो आपको भी दिखना था।,,,, दमन बोल
सन्यासी का प्रयोग अप्रत्यासित और गूढ़ था। देखा नहीं कैसा त्वरित दृष्टि उच्चाटन का प्रयोग किया उन्होंने।सिक्के की शक्ति तो पल भर भी ना चली। उनको कम आकना भारी भूल होगी ,,, मैंने स्थिति स्पष्ट की।
और वैसे भी , उनकी मर्जी , वो मिलना चाहे या नहीं। हम जबरदस्ती करने वाले कौन होते है। मैंने अपनी सोच बताई ।
पंडित जी सही कह रहे है। वो सन्यासी किसी का बुरा तो कर नहीं रहे है जो हम जा कर उनसे झगड़ा करने बैठ जाये। रतन जी ने भी विचार रखा।
तो क्या वापस चले जाये ? ... दमन ने चाय का खाली कप टेबल पर रखते हुवे बोला ।
आप की राय क्या है दमन जी ? ,,,, मैंने प्रश्न का उत्तर प्रश से ही दिया।
इतनी दूर आकर खाली हाथ तो नहीं जाउगा में भाई। ये बाबा भी खिसका हुवा लगता है। अरे दो घड़ी बात कर लेगा तो क्या चला जायेगा उसका। ,,,,,,,,,,, दमन ने कहा।
में कुछ न बोला। कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा था। वापस बैठक में गया और सोफे पर पसर गया।
पीछे पीछे दमन जी और रतन जी भी आ गए।
पंडित जी कुछ तो बोलिए की करना क्या है। अबकी रतन जी ने पूछा।
जबाब दमन जी की तरफ से आया , एक राय के रूप में। ,,, पंडित जी क्यों न उनसे बिना मिले उनके क्रिया कलापो का अद्ययन किया जाये।
तुम्हारा मतलब छिप के ? ... मैंने पूछा
छिपने का क्या है इसमें। शमशान को अभी तक बाबे ने खरीदा तो न है ना ? वो अपने में मस्त , हम अपने में मस्त। ,,,,, दमन ने अपना पक्छ रखा।
किया तो जा सकता है , लेकिन सोच लो ,,,,,,,, कही महोदय क्रुद्ध हो गए तो तलवारे चलने की नौबत आ जाएगी। ,,,,,, मैंने बताया
महोदय की ऐसी के ऐसी। हम उनके क्रिया कलापो में कोई विग्न तो डालने जा नहीं रहे। दमन से जैसे फैसला सा सुनाया।
चलो ठीक है , अब आप कहते हो तो यही सही। चलते है आज रात उनके दर्शन को। मैंने भी हा कर दी।
बस रतन जी से विनती है की वो साथ जाने की जिद न करे। मैं रतन जी की तरफ देखता बोल उठा
क्या पंडित जी , मुझे इतना डरपोक समझते है क्या। रतन जी थोड़ा अनमने से बोले।
बात हिम्मती या डरपोक की नहीं है रतन जी। शमशान में इन क्रिया कलापो में काफी खतरा रहता है। में आपको खतरे में नहीं डालना चाह रहा।
कुछ भी हो , पंडित जी , ले के चलते तो अच्छा होता, ऐसा मौका बार बार थोड़े ही मिलता है । रतन जी एक बार फिर से कोशिश की
नहीं रतन जी , यहाँ सन्यासी पहले से बिगड़े हुवे है। खतरा हो सकता है। विनती है आपसे। मेने बोला।

चलो भाई , फैसला हो गया। रतन जी नहीं जाएंगे। और में और पंडित जी बाबे की रात की कारस्तानी देखने जाएंगे, मंजूर ?? दमन से प्रश्न सा दाग लेकिन फैसले के सुर में ।
मंजूर ठाकुर साहब , आप का फैसला कौन टाल सकता है। मैंने बोल , और हम तीनो मित्र मुस्कुरा उठे
वो अलग बात है की मेरी मुस्कुराहटों के पीछे चिंता की लकीरे भी नाच रही थी। 
हुवी दोपरह , डट कर दोपहर का भोजन किया गया। उस दिन और तो कुछ करने को था नहीं , इस लिए रतन जी ने आज बगीचे में कुछ चारपाइयाँ डलवा दी थी। बगीचे में आम के घने पेड़ों की छाया मे मंद मंद बहती हवा मानो बदन को चुम कर निकल रही रही थी। थोड़ी देर तो यहाँ वहां की बातें चलती रही फिर हम सब एक एक कर उघते चले गए।
हुवी शाम , आज तो तैयारी करनी थी। क्या पता हमें बाबा देख ही ले , और कुपित होकर कुछ बड़ा प्रहार कर दे। मैंने दमन को इशारा किया , हाथ पांव धो लिए और चला गया कमरे में। इस इशारे का मतलब दमन अच्छी तरह से जानते थे। अब किसी को भी मेरे कमरे में मेरे बिना बुलाए नहीं आना था।
अंदर आकर मैंने अपना सूटकेस खोल पूजन सामग्री निकाली।
बाबा विश्वनाथ और माँ गौरी के स्थान बनाए ,,,,,,,और डूब गया ध्यान में। हो जाने वाली गलतियों के लिए छमा मांगी ,और अपनी और दमन की प्राण रक्छा की विनती करता रहा । फिर कुछदेर तक माँ के ९ रूपों का बारी बरी ध्यान करता रहा और फिर आँखे खोल दी।
अब आया मंत्रो का नंबर , कुछ महत्व्पूर्ण रक्छक मंत्रो का जाप कर के उन्हें धार लगाई। कुछ एक मारक विद्याओं का भी संधान की विधि मन ही मन दोहरा ली , जिससे वक़्त आने पर तुरंत प्रयोग किया जा सके।
अब मैने पूजन सामग्री वापस सूटकेस में रख लिया । और वो सन्दूकची निकल कर रख ली जिसमे तंत्र कवच रखता था। आज मुझे और दमन को इन्हे धारण करना अनिवार्य था . ऊंट किस करवट बैठेगा , कुछ कहा नहीं जा सकता था।
यह कहनी आपको कैसी लगी कृपया अपने विचार व्यक्त करे !






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