सन्यासी (तन्त्र-मन्त्र की दुनिया ) -09



सन्यासी (तन्त्र-मन्त्र की दुनिया ) -09

आज तो उस ध्वस्त मंदिर का नज़ारा ही कुछ और था , प्रवेश द्वार के ध्वस्तवशेषो के सामने दोनों ओर दो दीपक जलाए गए थे.! टूटी फूटी दीवारों को भी दीप माल से सजाया गया था ! दियो के मद्धिम टिमटिमाते प्रकाश में परिक्रमा पथ पर कुछ आम्र पत्र मॉल भी शुशोभित लगे .!
प्रणाम महराज , मैंने डोम राज को प्रणाम किया ,!
जुग जुग जिओ बच्चा , डोम राज ने आशीर्वाद दिया !
"
आज तो शमशान में दीवाली की रात जैसा नजारा लग रहा है ! कुछ विशेस आयोजन है क्या ? ,मैंने सवाल किया
"
हा बच्चे , कुछ विशेष ही है ,और वो विशेस भी तुमसे ही है , तभी तो ये सब प्रयोजन किया गया है " डोम राज ने बताया , लेकिन असल कारण गोल कर गए थे वे .
क्या विशेष है महराज? , मेरी उत्कंठा ने मुझे फिर पूछने पर मज़बूर किया !
"
आज आपके कोई भी प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहेंगे सागर ! कृपया मेरे साथ आइये " डोम राज ने अंदर चलने का इशारा किया !
हम दोनों टूटी हुवी सीढ़ियों को पार करते हुवे परिक्रमा की तरफ बढ़ चले !
शमशान में किसी ने तंग तो नहीं किया न ? डोम राज ने पूछा
"
वैसे मैंने तो बाबा से बोल दिया था की सिरसा मसान को बुला के बोल दे की कोई तंग ना करे , लेकिन वो बोले की जरुरत नहीं"...... . डोम राज ने अपनी बात पूरी की !
"
नहीं महराज , कोई तंग करना तो दूर ,,,, पास भी नहीं फटका कोई ! पता नहीं कौन से बिल में दुबक गए है सभी" . मैंने जबाब दिया !
अचानक मुझे महात्मा की वो बात याद आ गयी जो उन्होंने मुझे बिना कवच के आने की चिंता से मुक्त करने को बोली थी की ,,,,,,,, " चिंता ना कर मेरे बच्चे , कल ये शमशान सो जायेगा "
वाह , क्या बल है महात्मा का , मैंने मन ही मन उन्हें प्रणाम किया
"
बिल में तो दुबके गे ही साले ,,,,,,,,,,,, आज उन सब के माँ के खसम लोग जो आने वाले है " तभी डोम राज मेरी तरफ घूम कर बोले , फिर अपने तम्बाकू खाने से पीले पड़े दांत दिखा कर हँसाने लगे !
"
कौन आनेवाला है महराज ' ? मैंने प्रश्न किया .
जो भी आएगा , तुम्हारे सामने ही आएगा बच्चे ! देख लेना !
तब तक हम टहलते हुवे परिक्रमा के आखिर में बने एक कक्छ तक पहुंच गए थे , जिसकी छत अभी तक सलामत थी . कछ के अंदर से लालटेन के धीमी रोशनी आ रही थी !
"
बाबा , सागर आ गया है " डोम राज ने बहार से आवाज़ लगाई !
आओ पुत्र , अंदर आ जाओ , तुम्हारी ही प्रतिकछा थी , कच्छ के अंदर से सन्यासी की धीर गम्भीर आवाज़ सुनाई दी .!

"पुत्र " के सम्बोधन से मैं तनिक चौक सा गया ! बाबा ने सम्भवतः पहली बार मुझे इस सम्बोधन से नवाज़ा था !
कक्छ में प्रवेश करते ही मैं बाबा की तरफ बड़ा ! वो एक जीर्ण सी सन्दूकची से कुछ निकाल कर उसपर से धूल साफ कर रहे थे ! मुझे देखा तो खड़े हुवे और लपक कर मेरे पास आये !
शायद "पुत्र" शब्द से सम्बोधन ,,,,,, या उनके विलक्छन् ज्ञान ,,,,,, उनके उपदेश या ,,,,"कुछ विधान के सज्ञान" ने मेरे घुटने मोड़ दिए और मैं घुटनो के बल बैठ कर अपना सर उनके घुल धुसित चरणों पर रख दिया ! तन्छन् वो महामानव नीचे झुके,, मेरे कंधे पकड़ मुझे उठाया , और अपने कलेजे से चिपका लिया! "नहीं मेरे बच्चे , तेरी जगह मेरे सीने में है , पैरो में नहीं !" उनकी आवाज़ कांप रही थी !
उनका निश्छल प्यार कहे या प्रकृति का संकेत , मेरे नयन बस बरस ही पड़े ! बाबा , मुझे तो आपके चरणों की धूल भी माथे पर लगाने को मिले तो जीवन सफल हो जाए ! बस अब मैं इन चरणों को छोड़ कही नहीं जाने वाला! मेरे भर्राए स्वर में बाल हठ का कुछ पटु था !
बाबा कुछ देर और मुझे छाती से लगाए रहे, फिर मुझे अलग किया ! टहलते हुवे कक्छ की दूसरी तरफ गए , पुरानी सन्दूकची पे कपड़ा बुहारा , मेरी तरफ पलटे और बोल उठे , " " अभी ये संभव नहीं सागर " उनकी आँखों में मुझे गम्भीरता नजर आ रही थी .
"
छमा करे बाबा , शायद मैं इसके योग्य नहीं हु , बस आपका प्यार देख लालच में आ गया था ! छमा करे मुझे " उनकी गम्भीरता देख मैं झेंप सा गया था !
"
नहीं सागर , ये बात नहीं है " कुछ दिनों में तुम खुद समझ जाओगे मेरे इंकार का कारन ."बाबा अब पुनः मुस्कुरा रहे थे .!
मैं उनकी आँखों में अपने लिए अथाह प्यार देख रहा था !,,,,,,, मुझे याद आने लगी उनकी पहली मुलाकात में अघोर ताप से जलते उनके नेत्र ,,,,,,,,,,,,, याद आ गया उनका नटुआ जैसी शक्ति का गला पकड़ के हमारी ओर दौड़ाना ,,,,,,,,,, उनका मारण प्रयोग ! ,,,,,,,,वाह महात्मन !!!!!!, बिना कसौटी पर घिसे अपने प्रिय को भी पास नहीं आने दिया .
"
चल सागर जल्दी कर ,,,,,,, समय कम है पुत्र ,,,,, तुझे वो वस्तु देनी है जो मैंने सैकड़ो सालो से बचा कर रख रखीं है ! "बाबा की आवाज़ ने मेरी तन्द्रा तोड़ी !
"
क्या है वो वस्तु बाबा" , मेरी उत्कंठा फिर जागी
"
आ तो सही",,,,,,, , बाबा ने मेरा हाथ पकड़ा और उस कक्छ के भीतरी तरफ चल पड़े जहां एक बड़ा सा सन्दूक रखा था .!
बाबा ने सन्दूकची का ढक्कन खोला और उसमे उतर गए ! अंदर झुके और किसी चीज को नीचे दबाने लगे . ! कुछ प्रयास के बाद किसी जंग लगे किवाड़ के खुलने की सी आवाज़ आयी !
मेरे पीछे आओ सागर , बाबा ने मुझसे कहा और सन्दूख में उतरते चले गए !
मैं भी उनके पीछे सन्दूक में उतर गया , आगे एक सकरी सी सीढ़ी नीचे उतरती दिखी .! बाबा नीचे उतर चुके थे , मैं भी उनके पीछे निचे उतर गया !
नीचे उतर कर बाबा बेधड़क उस घुप्प अँधेरे कक्छ में एक ओर बढ़ लिए जैसे उन्हें सब रास्तो , सब सामन के बारे में पहले से पता हो .! मुझे तो अपनी पेंसिल टोर्च जलानी पडी ! मैं घुल धुसित फर्श पर बचते बचाते किसी तरह उनके पास पंहुचा ! तब तक वो एक जीर्ण सी छोटी सन्दूकची से कुछ निकाल कर उसपर से घुल हटाते दिखे .! वो एक भोजपत्र पर लिखित कोई ग्रन्थ था जो अब भी काफी सुरक्छित हालत में लग रहा था .!
"
यह लो सागर ! तुम्हारी अमानत",,,,,,,,, बाबा ने वही नीचे कक्छ में ही वो ग्रन्थ मेरे हाथ पर रख दिया .!
मैंने पेन्सिल टोर्च की रोशनी में उसे कुछ देर उलटा पुल्टा कर के देखा .! मुझे वह एक तांत्रिक महा ग्रन्थ सा लगा , लेकिन उसमे लिखित कुछ भी पूरी तरह समझ नहीं आ रहा था .!
"
बाबा क्या है ये " मैंने महात्मा से पूछने में ही भलाई समझी !
ये महा तांत्रिक ग्रन्थ तुम्हारी अमानत है सागर ,,,,,,,,, तुम्हारे परिवार की अमानत है ,,,,,,,, तुम्हारे पांच जन्मों पूर्व के महा प्रबल पिता की अमानत है ! बाबा का स्वर पुनः भीगा हुवा सा लगा
"
बाबा ,,, क्या आप ही !!!! ?" मैंने पूछना चाहा
नहीं पुत्र , मैं तुम्हारा पिता नहीं हु !
"
ओह",,,,, मेरा उत्साह ठंडा पड़ा !
लेकिन बाबा , आपको कैसे पता चला की ये ग्रन्थ यहाँ पड़ा है ! ये गुप्त कक्छ ,,,, ये गुप्त रास्ता , ? मैंने आशचर्य व्यक्त किया .!


वो इसलिए की तुम इस मंदिर के पूर्व जन्म के आखिरी महापुजारी के समक्छ खड़े हो पुत्र ! !

महात्मा के इस नए रहस्योद्घाटन से मैं आश्चर्यचकित रह गया ! तंत्र महा ग्रन्थ से ध्यान हट कर फिर अपने और महात्मा के सम्बन्धो पर आ गया !
हे महात्मा , फिर मैं कौन हु ?
तुम इस महा ग्रन्थ ही नहीं , इस मंदिर के महापुजारी पद के भी असली वारिस हो पुत्र ! सन्यासी ने अँधेरे में मेरी और देख कर बोला और ऊपरी कक्ष में जाती सीढ़िया चढते चले गए !
महा ग्रन्थ हाथ में लिए मैं भी सन्यासी के पीछे पीछे ऊपरी कक्ष में आ गया ! ऊपर आकर सन्यासी अपने तख़्त की और बढे और उसपर विराजमान हो गए ! मैं उनके चरणों की तरफ खड़ा उन्हें देखता रहा , ! मैं अभी तक कुछ भी समजने लायक नहीं था ! , न ही वो ग्रन्थ और ना ही सन्यासी की रहस्य्मयी बाते!
मुझे पास आया देख सन्यासी ने आगे कहना शुरू किया ,,,,,,,,,,," पुत्र सागर , ये तंत्र महा ग्रन्थ बहुत ही विशिष्ट है और वंश बेल के आधार पर तांत्रिक तिलस्म से बाधित है ! तुम्हारे आलावा इसे केवल तुम्हारा तांत्रिक पुत्र जीव ही उपयोग में ला सकता है .! किसी और के द्वारा इसके उपयोग की कोशिश विनाशकारी हो सकती है , ग्रन्थ के लिए भी , और व्यक्ति के लिए भी ! "
"
लेकिन ऐसा क्यों महात्मन ,धार्मिक ग्रन्थ तो पूरी मानव जाती के लिए होते है , इस मंत्र तिलस्म का कारण नहीं समझा !" मैंने अपनी जिज्ञासा प्रगट की !
पुत्र , तंत्र जितना कल्याणकारी है उतना ही विनाशक भी ! उसपर से असीमित शक्ति का श्रोत ! महा ग्रन्थ में वर्णित प्रचण्ड शक्ति श्रोतो को गलत हाथो में जाने से बचाव के लिए ही तुम्हारे पुरखो ने यह वयवस्था की थी !
इसके अतिरिक्त भी विभिन्न आयामों के जीवन और उनके जीवो के बारे में भी इसमें बहुत कुछ रहस्य उजागर किये गए है ! उन रहष्यो का कुपात्र हाथो में जाना मानव जाती के सामान्य समाजिक ताने बने को नष्ट कर सकता है !सन्यासी वाणी में गम्भीरता भरी हुवी थी !
लेकिन सावधान पुत्र , ये महाग्रंथ अपने रहस्य बिना इसके पात्र बने उजागर नहीं करेगा ! केवल उच्चतम स्तर का साधक जिसे कमसे कम तीन आयामों की पूरी जानकारी हो इसके केवल आरम्भिक वाचन के योग्य होगा.! इसमें वर्णित साधनाए करना और शक्ति प्राप्ति तो बहुत दूर की बात है !
मैं सम्मोहित सा खड़ा महात्मा के गंभीर वचन सुनता रहा !
एक बात और पुत्र , अब जबकि तुमने ये महा ग्रन्थ धारण कर लिया है , तो तुम्हे मुझे कुछ वचन देने पड़ेंगे
"
मुझे वचन दो की बिना सुपात्र बने तुम इसके उपयोग की कोशिश नहीं करोगे !
"
मुझे बचन दो की ये ग्रन्थ इसके अगले उत्तराधिकारी के अलावा किसी को भी उपयोग हेतु स्थानांनतरित नहीं करोगे "
"
मुझे वचन दो की ग्रन्थ के उत्तराधिकारी की योग्यता और सदुपयोग की आकांछा पर प्रश्न चिन्ह की स्थिति में तुम खुद ही इस महा ग्रन्थ का अग्नि दाह कर दोगे "
अचानक से उस महा ग्रन्थ का भार मुझे कुछ अधिक ही प्रतीत होने लगा ! शायद महात्मा के वचनो से मुझे इन ग्रन्थ के धारक क़ी जिम्मेदारियों का एहसास हो गया था !
में ने उस महा ग्रन्थ को श्रद्धा के साथ अपनी आँखों और माथे से लगाया एवं यन्त्र चलित सा वो महा ग्रन्थ हाथ में पकड़े बाबा को वचन देता गया !

लेकिन बाबा , आप तो पूर्व जन्म के इस ध्वस्त मंदिर के आखिरी महा पुजारी थे ! फिर मेरे उत्तराधिकार का क्या अवचित्य ?
अवचित्य है पुत्र , बड़ा रक्तिम और लोमहर्षक अवचित्य है , सन्यासी की आँखों में जैसे कोई मनहूस काली स्याही सी नाच उठी थी ! मंदिर का ध्वस्त होना भी उसी अवचित्य की ही पराकाष्ठा थी !
रक्तिम और लोमहर्षक अवचित्य सुनकर मैं सिहर उठा ! बाबा क्या हुवा था , कौन हु मैं ? मैं लगभग गिड़गिड़ाने लगा था !
सभी प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे सागर , आज तो तुम्हे सब कुछ जानना ही है ! जन्मों से मेरी दृष्टि तुमपर रही है , बहुत इंतज़ार किया है मैंने तुम्हे वापस इस योग्य होने का की तुम्हे ये सब बताया जा सके ! और तुम अपना प्रायश्चित पूर्ण कर के महामाया की राह में आगे बढ़ सको !
तो क्या , ,,,, मेरे पिछले पांच जन्म प्रायश्चित के थे ? मेरा दिमाग अब तक अंतरिक्ष में घूमना शुरू हो चूका था !
हा पुत्र , यह एक दुखद सत्य है !
बाबा , क्या पाप किया मैंने पांच जन्मों पूर्व ? मैं कौन हु ? आप मेरे कौन है ? मेरा घबराना और गिड़गिड़ाना बढता ही जा रहा था !
शांतिः शांतिः ,,,,,,, आज तुम्हारा कोई भी प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहेगा .! यहाँ आओ और आकर शव आसान में लेट जाओ ! सन्यासी ने कक्ष के टूटे फूटे फर्श पर बिछी एक दरी की तरफ इशारा किया !
मैं ततचन आज्ञा का पालन किया एवं दरी पर आकर लेट गया और शव आसान में चला गया ! सन्यासी भी तख्त से उठे और मेरे सर के बगल में पद्मासन में बैठ गए !
अपने दिमाग से सभी तरह की आशंकाओं , इक्छा और डर को निकाल दो सागर ,,,,,,,,और शांति से अपने मष्तिष्क को वयोम में विचरित होने दो ! सन्यासी की आवाज़ मुझे अब दूर से आती महसूस होने लगी थी और मुझे आंशिक समाधी का अनुभव सा होने लगा !
उधर बाबा ने अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाया और मेरे सर पर इस प्रकार रखा की उनका अंगूठा मेरे आज्ञा-चक्र पर स्थिर हो गया और बाकी की अंगुलियों ने मेरे सहस्रार-चक्र को घेरे में लिया !
कुछ पल बीते , और तभी मेरे अंतरिक्ष में विचरते मस्तिष्क को मानो करंट सा लगा ! अचानक एक तीव्र ऊर्जा का एहसास हुवा और मेरे दृष्टि पटल पर कुछ अनघड़ सी छवियाँ बनने बिगड़ने लगी ! कुछ ध्यान से देखने पर मुझे एक नदी किनारे एक अति भव्य मंदिर दृष्टिगोचर हुवा ! बलुवा पत्थरो से बने इस सुन्दर मंदिर के शिखर पर माँ काली की पताका फहरा रही थी ! दृष्टि नीचे गयी तो एक किशोर बालक को मंदिर की सीढ़ियों पर पानी छिड़कते देखा !
तभी अंतरात्मा ने ये एहसास दिया ,,,,,,,,, ये तो मैं ही मंदिर की सीढ़ियों को पानी से धो रहा हु
मेरे पांच जन्मों पूर्व का सफर शायद शुरू हो चुका था !

आत्म ग्लानि इतनी अधिक थी की मैं दहाड़े मार के रोये जा रहा था ! सन्यासी भी मेरे पीछे पीछे आये , मुझे बल पूर्वक अपने आगोश में खींचा , और गले से लगा लिया ! मैं उनके गले से लग के जार जार रोता रहा और क्षमा याचना करता रहा ! रोने दिया था उन्होंने मुझे कुछ देर ! बीच बीच में पुचकारते भी जा रहे थे! करीब पांच मिनट रोने के बाद जब मेरा कुछ आवेग काम हुवा तो उन्होंने मुझे समझाना शुरू किया !

बस करो पुत्र , तुमने बहुत पश्यताप किया है , बहुत दण्ड भुगता है अपने कर्म फल का ! अब कर्म की घड़ी है , इस जीवन में कर्म वीर बनना है तुझे !
जो कुछ हुवा वो केवल तुम्हारा ही कर्म फल नहीं था ! हम सब के भी कर्म फल शामिल थे उसमे ! कर्म तो एक चक्र है , जिसमे सभी एक दूसरे से बंधे है ! बड़ा चतुर है वो इस श्रीष्टि का सबसे बड़ा नाटक कार , नाटक के एक ही दृश्य में सबकी भूमिकाएं आरोहित कर देता है ! वो केवल तुम्हारे कर्म फल होते तो मैं और तुम्हारे पिता श्री क्यों व्यथित होते ! , क्यों मैं सैकड़ो वर्षो तक इस पार्थिव शरीर में वाश करने को विवश हु .! पुत्र , उन घटनाओं में हमारे भी कर्म फल निहित थे ! अपने कर्मानुसार निम्मित तुम्हे बनना था ! बने ,! दुष्कर्म हुवे , प्रायश्चित हुवा ! अब सद्कर्म की बारी है अतः वयाकुलता , शोक एवं संताप त्याग दो पुत्र !

महात्मा की आवाज़ सीधे मेरे अंतःकरण तक उतरती चली गई ! वयाकुल मन कुछ शांत हुवा , पर आँखे अभी भी बरस रही थी !
"
लेकिन चाचा श्री , कुल द्रोही तो मैं ही हुवा ना ! मेरे कारन ही तो महासंग्राम हुवा ! महामाया का मंदिर तक ध्वस्त हो गया ! क्या अब भी आप मानते है की मुझे क्षमा किया जा सकता है " मैं ने पूछा !

बाबा ने मुझे अपने से अलग किया , कुछ पीछे हटे , मेरे सर पर हाथ फेरा और कहा ,,,,," एक तुम्ही कारण क्यों ? क्या तुम्हारे पिता का हठ कारण नहीं , क्या राज तांत्रिक की महापुजारी पद और महा ग्रन्थ पा लेने का लालच कारन नहीं !
कर्म घटनाओं से बनते है पुत्र , एक नियती के कई उपसंहार होते है जो की विविन्ना प्रकियाओं के क्रमबद्ध सन्चालन पर निर्भर करती है ! किसी भी प्रक्रिया ,वस्तु ,स्थान , ईश्वरीय अनुकम्पा ,या विवेक के हस्तक्चेप से भी नियति के उपसंहार बदलते है ! कुकर्मी सदा और निर्विवाद रूप से दोषी होता है , और उसे उसका जन्मांतर में दण्ड भी भुगतना और प्रायश्चित करना होता है ! परन्तु यह भी सही नहीं की अपने कुकर्म / प्रारंभिक असफलता की छाया में उसके बोझ तले पश्यताप से ग्रसित हो कर्म हीन हो कर अपना भविष्य ही नष्ट कर लिया जाए ! इससे तो अच्छा है की भविष्य में सद्कर्म का संकल्प ले जिसके कर्म फल से कमसे कम कुछ तो पाप का नाश हो !

मैं मंत्र मुग्ध सा महात्मा के उपदेश सुनता रहा , मेरा संताप काफी कम हो चूका था
सहसा कक्ष के द्वार पर डोम राज प्रगट हुवे और बोले ,,," महाराज , गर्भ गृह में पूजा की तैयारी हो चुकी है "
"
करिया , तू जा l , देखे की महापूजा की सामग्री ठीक से जमा दी गई है की नहीं , समय कम है शीग्रता कर ",,, महात्मा ने डोम राज को आदेशित किया !

डोम राज के जाने के बाद महासन्यासी फिर मेरी तरफ मुड़े और बोल उठे " सागर , तुम भी गर्भ गृह में जाकर पूजा की तैयारियां करो , आज माँ की महा आरती में तुम मेरे सहायक होगे !
"
जो आज्ञा चाचा श्री ",,,,,,, मैं सादर झुका, और मुड़ कर कक्ष के बाहर निकल गया !
गर्भ गृह में प्रवेश करते ही मैं स्तभ्द रह गया ! वहां एक संस्थापित मंदिर का सा मौहोल बना हुवा था ! फर्श पर अच्छी तरह बुहारी की गई थी , उन्नत मूर्ति स्थल से कुछ ध्वस्त पत्थरो के टुकड़े हटा कर वो स्थान ज्यादा बड़ा और सुगम्य बना दिया गया था ! बलि वेदी को पानी से अच्छी तरह धोया गया था ! मंदिर का फर्श भी गीला सा लगा मुझे , उसे भी शायद रगड़ रगड़ कर घोया गया था ! मूर्ति स्थल की नीचे तरह तरह की पूजन सामग्री रखी हुवी थी ! सिंदूर , अछत , काले तिल , काला कपड़ा , भोग , दीप, इत्यादि सामग्री मूर्ति स्थल पर ही रख गया था ! हवन कुंड अब भी शांत ही था ! शायद इस पूजा में उसकी आवशयकता नहीं थी ! मैंने आगे बाद कर एक कपड़ा लिया और माँ काली के लघु विग्रह स्थल की पूर्ण श्रद्धा से सफाई करने लगा ! माँ का ये लघु विग्रह शायद चाचा श्री ने आने के बाद अपने पूजन के लिए आज कल में ही संस्थापित किया होगा ! तभी मेरे पीछे कुछ आहट सी हुवी , मूड कर देखा तो चाचा श्री गर्भ गृह के अंदर आ चुके थे !
सब कुछ व्यवस्थित तो है ना सागर ,,,,,,,,, आते ही महात्मा ने मुझसे पूछा !
हां चाचा श्री, सभी सामग्री ठीक है क्या हम पूजन का आरम्भ करे ? मैंने आज्ञा लेनी चाही !
हा पुत्र , बस एक कमी है ! , सन्यासी ने परिक्रमा की और निगाहे घुमाई , और तेज़ आवाज़ लगाई , ,," करिया ,,, लेके आ उसे !
ले आया बाबा , बस तनिक नहा ले वो ! डोम राज की आवाज़ कुछ दूर से आती प्रतीत हुवी !
कौन नहा रहा है बाबा ? ,,, मैंने महात्मा से पूछा !
इस मंदिर की आखिरी बलि !!!!!! महात्मा गंभीर थे

यह कहनी आपको कैसी लगी कृपया अपने विचार व्यक्त करे !






Comments

Popular posts from this blog

Rule Change: क्रेडिट कार्ड, LPG दाम से UPI तक... आज से बदल गए ये 7 बड़े नियम, हर जेब पर होगा असर!

भूल से भी ना करवाएं कार में ये 5 मॉडिफिकेशन्स, गाड़ी होगी सीज और भरना पड़ेगा हजारों का चालान