खजाने-की-तलाश (Khazane ki Talash),,-06
ब
प्रोफ़ेसर ने यह कहानी रामसिंह
और शमशेर सिंह को सुनाई तो
छूटते ही रामसिंह कहने लगा,
"मैं
तो पहले ही कह रहा था कि ये लोग
भूत प्रेत हैं.
भला
कोई मनुष्य हजारों साल कैसे
जिंदा रह सकता है.
अब
अच्छा यही होगा कि इन्हें यहीं
छोड़कर किसी तरह भाग चलो.
भाड़
में गया खजाना.
घर
चलकर आलू बेचने का धंधा कर
लेंगे.
थोड़ा
बहुत पैसा तो मिल ही जायेगा."
"तुम लोग हमेशा गिरा हुआ ही सोचोगे." प्रोफ़ेसर ने उन्हें घूरा, "किस्मत ने कितना अच्छा मौका दिया है हमें. ये प्राचीन युगवासी अब हमारे दोस्त बन चुके हैं. हम अब इन्हें थोड़ा मक्खन और लगाते हैं तो ये हमें प्राचीन खजाने का पता ज़रूर बता देंगे."
एक बार फिर तीनों लालच में आकर प्राचीन युगवासियों के साथ रहने पर तैयार हो गए.
एक दिन बातों ही बातों में प्रोफ़ेसर ने सियाकरण से पूछा, "तुम लोगों के पास खजाना तो अवश्य होगा."
"खजाना किसको कहते हैं?" सियाकरण ने पूछा.
"खजाना मतलब ऐसी चीज़ें जिससे लोग अपनी ज़रूरत का सामान खरीदते हैं."
"ओह! खजाना तो है मेरे पास." कहते हुए सियाकरण ने अपने सफ़ेद लबादे के अन्दर हाथ डाला. प्रोफ़ेसर के साथ मौजूद रामसिंह और शमशेर सिंह उत्सुकता के साथ उसके करीब आ गए.
सियाकरण ने जेब से कुछ सिक्के निकालकर प्रोफ़ेसर के हाथ पर रख दिए.
"ये सिक्के तो तांबे के हैं." प्रोफ़ेसर ने उलट पलट कर देखते हुए कहा.
"हमारे पास तो यही खजाना है." सियाकरण ने कहा.
"ओह!" तीनों ने मायूसी से सर हिलाया.
-----------------
"ये लोग तो हमारी तरह फक्कड़ निकले. भला तांबे के सिक्कों में आजकल क्या मिलेगा." रामसिंह ने मायूसी से कहा. इस समय वे एक पगडण्डी पर चल रहे थे. प्राचीन युगवासी उनके पीछे काफी फासले पर चले आ रहे थे.
"अब तो अच्छा यही होगा कि हम लोग इन्हें यहीं छोड़कर निकल लें." शमशेर सिंह ने राय दी.
"अरे वो देखो!" प्रोफ़ेसर ने सामने इशारा किया. दोनों ने चौंक कर देखा, सामने एक रेलवे लाइन दिखाई दे रही थी.
"इसका मतलब कि हम लोग जंगल से बाहर आ चुके हैं." शमशेर सिंह ने कहा.
"यह क्या है?" पीछे मौजूद सियाकरण ने पूछा. अब तक प्राचीन युगवासी भी उनके पास आ चुके थे.
"यह पटरी है. जिसपर रेलगाडी चलती है." प्रोफ़ेसर ने बताया.
"रेलगाडी क्या होती है?" मारभट ने पूछा.
"रेलगाडी...यानी तुम्हारे ज़माने की यटिकम." प्रोफ़ेसर ने समझाया. चारों युगवासियों ने इस प्रकार अपना सर हिलाया मानो प्रोफ़ेसर की बात समझ गए हों.
"अगर हम लोग इस लाइन के साथ चलें तो किसी छोटे मोटे स्टेशन तक पहुँच सकते हैं." प्रोफ़ेसर ने राय दी और फ़िर सभी उसके पीछे पीछे रेलवे लाइन की बराबर में चलने लगे.
"तुम लोग हमेशा गिरा हुआ ही सोचोगे." प्रोफ़ेसर ने उन्हें घूरा, "किस्मत ने कितना अच्छा मौका दिया है हमें. ये प्राचीन युगवासी अब हमारे दोस्त बन चुके हैं. हम अब इन्हें थोड़ा मक्खन और लगाते हैं तो ये हमें प्राचीन खजाने का पता ज़रूर बता देंगे."
एक बार फिर तीनों लालच में आकर प्राचीन युगवासियों के साथ रहने पर तैयार हो गए.
एक दिन बातों ही बातों में प्रोफ़ेसर ने सियाकरण से पूछा, "तुम लोगों के पास खजाना तो अवश्य होगा."
"खजाना किसको कहते हैं?" सियाकरण ने पूछा.
"खजाना मतलब ऐसी चीज़ें जिससे लोग अपनी ज़रूरत का सामान खरीदते हैं."
"ओह! खजाना तो है मेरे पास." कहते हुए सियाकरण ने अपने सफ़ेद लबादे के अन्दर हाथ डाला. प्रोफ़ेसर के साथ मौजूद रामसिंह और शमशेर सिंह उत्सुकता के साथ उसके करीब आ गए.
सियाकरण ने जेब से कुछ सिक्के निकालकर प्रोफ़ेसर के हाथ पर रख दिए.
"ये सिक्के तो तांबे के हैं." प्रोफ़ेसर ने उलट पलट कर देखते हुए कहा.
"हमारे पास तो यही खजाना है." सियाकरण ने कहा.
"ओह!" तीनों ने मायूसी से सर हिलाया.
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"ये लोग तो हमारी तरह फक्कड़ निकले. भला तांबे के सिक्कों में आजकल क्या मिलेगा." रामसिंह ने मायूसी से कहा. इस समय वे एक पगडण्डी पर चल रहे थे. प्राचीन युगवासी उनके पीछे काफी फासले पर चले आ रहे थे.
"अब तो अच्छा यही होगा कि हम लोग इन्हें यहीं छोड़कर निकल लें." शमशेर सिंह ने राय दी.
"अरे वो देखो!" प्रोफ़ेसर ने सामने इशारा किया. दोनों ने चौंक कर देखा, सामने एक रेलवे लाइन दिखाई दे रही थी.
"इसका मतलब कि हम लोग जंगल से बाहर आ चुके हैं." शमशेर सिंह ने कहा.
"यह क्या है?" पीछे मौजूद सियाकरण ने पूछा. अब तक प्राचीन युगवासी भी उनके पास आ चुके थे.
"यह पटरी है. जिसपर रेलगाडी चलती है." प्रोफ़ेसर ने बताया.
"रेलगाडी क्या होती है?" मारभट ने पूछा.
"रेलगाडी...यानी तुम्हारे ज़माने की यटिकम." प्रोफ़ेसर ने समझाया. चारों युगवासियों ने इस प्रकार अपना सर हिलाया मानो प्रोफ़ेसर की बात समझ गए हों.
"अगर हम लोग इस लाइन के साथ चलें तो किसी छोटे मोटे स्टेशन तक पहुँच सकते हैं." प्रोफ़ेसर ने राय दी और फ़िर सभी उसके पीछे पीछे रेलवे लाइन की बराबर में चलने लगे.
जब ये लोग करीबी स्टेशन पर पहुंचे तो अच्छी खासी रात हो चुकी थी. कोई छोटा सा स्टेशन था ये जहाँ इक्का दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे थे. स्टेशन मास्टर से पूछने पर मालूम हुआ कि यहाँ दो रेलगाडियाँ रूकती हैं. उनमें से एक आधे घंटे के बाद आएगी और दूसरी सुबह चार बजे आती है. ये लोग प्लेटफार्म पर आ गए.
"हम लोग यहाँ क्यों आए हैं?" सियाकरण ने पूछा.
"अभी यहाँ यटिकम आकर रुकेगी. जिसमें सवार होकर हम लोग शहर जायेंगे." प्रोफ़ेसर ने बताया.
"अच्छा." सियाकरण ने सर हिलाया.
"जब तक यटिकम नहीं आती, हम लोग सो जाते है. बड़ी जोरों की नींद आ रही है." मारभट ने जम्हाई लेकर कहा. प्राचीन युगवासी होने के कारण उन्हें जल्दी सोने की आदत थी.
"ठीक है. तुम लोग सो जाओ. जब यटिकम आएगी तो हम तुम्हें जगा देंगे." जल्दी ही चारों प्राचीन युगवासियों के खर्राटे वहां गूंजने लगे.
"हमें एक बहुत सुनहरा मौका हाथ लगा है." रामसिंह ने कहा.
"कैसा मौका?" प्रोफ़ेसर ने पूछा.
"इनसे पीछा छुड़ाने का मौका. जैसे ही ट्रेन आएगी, हम इन्हें यहीं सोता छोड़कर निकल लेंगे."
"लेकिन!" प्रोफ़ेसर ने कुछ कहना चाहा लेकिन शमशेर सिंह ने फ़ौरन उसका मुंह दबा दिया, "बस, अब हम तुम्हारी कुछ न सुनेंगे. इन फक्कडों के पास खजाना होता, तब भी कुछ सोचा जा सकता था. लेकिन ये तो ज़बरदस्ती के पुछ्लग्गे चिपक गए हैं."
"ठीक है. जैसी तुम लोगों की मर्ज़ी." प्रोफ़ेसर ने ठंडी साँस ली और रेलवे लाइन पर लगे सिग्नल को देखने लगा जो फिलहाल लाल था.
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लगभग आधे घंटे की प्रतीक्षा के बाद गाड़ी आ गई और तीनों दोस्त उसमें सवार हो गए. दो मिनट स्टेशन पर रूकने के बाद गाड़ी चल दी और ये लोग प्राचीन युगवासियों से दूर होने लगे.
"खुश रहो ताबूत के जिन्नों, हम तो सफर करते हैं." रामसिंह ने किसी पुराने शेर की टांग खींची. प्लेटफोर्म पर चारों प्राचीन युगवासी नींद में डूबे पड़े थे इस बात से बेखबर की उनके कलयुगी दोस्त उनका साथ छोड़ रहे हैं.
"आज से हम कसम खाते हैं कि फ़िर कभी प्रोफ़ेसर देव के साथ खजाना खोजने के चक्कर में नहीं पड़ेंगे." शमशेर सिंह और रामसिंह ने एक आवाज़ होकर कहा.
"मैं ख़ुद ही अब कभी खजाना खोजने नहीं निकलूंगा. ये काम तो मैं तुम दोनों की भलाई के लिए कर रहा था. ये दूसरी बात है की खजाने के नाम पर कुछ तांबे के सिक्के मिले जो उन ताबूतवासियों ने दिए. वैसे अब भी मेरा विचार है की यदि हम उन ताबूतों की ठीक तरह से तलाशी लेते तो कुछ न कुछ अवश्य मिलता."
शमशेर सिंह ने झपट कर प्रोफ़ेसर का गरेबान पकड़ लिया और गुर्राते हुए बोला, "अब अगर तुमने खजाने का नाम भी लिया तो मैं तुमको इसी चलती गाड़ी से बाहर फेंक दूँगा."
"अच्छा नही लूँगा. मैं तो अब अपने नए एक्सपेरिमेंट के बारे में सोचने जा रहा हूँ."
"कैसा एक्सपेरिमेंट?"
"मैं सोच रहा हूँ की क्यों न मैं भी ऐसी मशीन बनाऊं जैसी उस युग के वैज्ञानिक महर्षि प्रयोगाचार्य ने बनाई थी. और इस प्रकार हम अपने भविष्य में पहुंचकर वहां की दुनिया देखेंगे. ऐसी दुनिया जहाँ हर व्यक्ति के पास एक कंप्यूटर होगा जो उसका सारा कार्य करेगा. लोग अपनी छोटी यात्राएँ भी वायुयान से करेंगे. रेलगाडियां ध्वनि से भी तेज़ चलेंगी. हर लड़का टी.वी. द्वारा अपने स्कूल के संपर्क में रहेगा. और इस तरह घर बैठे शिक्षा प्राप्त करेगा. लोगों के घर आसमान से बातें करेंगे और उन घरों के ऊपर लगा एंटीना पूरे विश्व के प्रोग्राम रिकॉर्ड करके उन्हें दिखायेगा."
प्रोफ़ेसर पूरी तरह भविष्य की कल्पना में खो गया था.
"और अगर इसका उल्टा हो गया?" रामसिंह बोला, "यानी हर कंप्यूटर के पास एक नौकर व्यक्ति होगा, वायुयान छोटी यात्रायें करने के काबिल भी न रहेंगे - पेट्रोल की कमी के कारण. रेलगाडियां ध्वनि से तेज़ चलकर प्रकाश की गति से एक्सीडेंट करेंगी. हर लड़का टी. वी. द्वारा शहर के समस्त सिनेमाघरों के संपर्क में रहेगा और इस तरह घर बैठे फिल्मी हीरो बन सकेगा. आबादी इतनी ज़्यादा होगी की आसमान से बातें करते घर ज़मीन में भी मीलों धंसे रहेंगे लेकिन फ़िर भी लोग घरों की कमी के कारण बेकार पड़े हवाई जहाजों में निवास करेंगे." रामसिंह ने उतनी ही तेज़ी से प्रोफ़ेसर की बातों की काट की जिस तरह छुरी मक्खन को काटती है.
"कुछ भी हो. मैं तो वह मशीन अवश्य बनाऊंगा. और उसमें तुम लोगों को बिठाकर भविष्य में भेजूंगा."
"बाप रे. तुम्हारे तो बहुत खतरनाक विचार हैं. हमें तो बख्श ही दो. वरना हम तो तुम्हारी मशीन में बैठकर भविष्य में जाने की बजाये भूत बनकर भविष्य से भी आगे भटकते फिरेंगे." शमशेर सिंह बोला.
"ठीक है. न जाओ तुम लोग भविष्य में. मैं स्वयं अपनी मशीन में बैठकर भविष्य की यात्रा करूंगा."
तो चले जाना. क्या हम लोग रोक रहे हैं. लेकिन पहले अपनी मशीन बनाओ तो." रामसिंह ने प्रोफ़ेसर को याद दिलाया की अभी उसकी मशीन केवल कल्पना के हवामहल पर है.
उसके बाद बाकी रास्ता खामोशी से तय हुआ. लगभग पाँच घंटे के बाद गाड़ी गौहाटी के प्लेटफार्म पर रुक चुकी थी. यहाँ ये लोग उतर पड़े. यहाँ से उनहोंने अपने शहर का टिकट लिया और शहर जाने वाली गाड़ी पर सवार हो गए. आधे घंटे के बाद वे लोग अपने शहर की ओर अग्रसर थे. उन लोगों ने तय तो कर लिया था की अब कभी खजाने की खोज में नहीं निकलेंगे किंतु कब उनके दिमाग पलट जाते इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता था.
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गाड़ी की सीटी की आवाज़ सुनकर सबसे पहले चोटीराज की आँख खुली. यह सुबह चार बजे वाली गाड़ी थी. चोटीराज अपने बाकी साथियों को जगाने लगा. कुछ ही देर में सब ऑंखें मलते हुए उठ बैठे.
"वह देखो यटिकम. इस युग का हमारा मित्र कह रहा था कि इसी में हम लोगों को बैठना है." चोटीराज ने उन्हें याद दिलाया.
"हाँ कहा तो था. किंतु वे लोग गए कहाँ?" मारभट ने चौंक कर कहा.
"मेरा विचार है कि वे लोग यटिकम में होंगे. चलो हम भी उसके अन्दर चलते हैं. किंतु यह यटिकम बड़ी विचित्र है. कितनी बड़ी है. कितने सारे लोग इसमें बैठे हैं. इसे कितने यल मिलकर खींचते होंगे." चीन्तिलाल ने आश्चर्य से कहा.
गाड़ी अब तक खड़ी थी. वे लोग उसकी तरफ़ बढ़ने लगे. फ़िर एक डिब्बे में जाकर बैठ गए. यह कोई धीमी पैसेंजर गाड़ी थी. क्योंकि इसमें यात्री बहुत कम थे और जिस डिब्बे में ये लोग बैठे थे वह पूरी तरह सुनसान पड़ा था. वैसे अगर इस डिब्बे में कोई अन्य यात्री होता तो वह एक बार अवश्य इन लोगों को आश्चर्य से देखता. और इसका कारण होता इनका लबादा और सात फुट की ऊँचाई.
गाड़ी अब रेंगने लगी थी. फ़िर उसने धीरे धीरे स्पीड पकड़नी शुरू कर दी. इस चक्कर में उसके डिब्बे कुछ हिलने लगे.
"अरे यहाँ तो भूकंप आ रहा है. जल्दी से बाहर निकलो." चीन्तिलाल ने घबरा कर कहा.
"यह भूकंप नहीं है, बल्कि यटिकम चलने लगी है. क्या तुम्हें याद नहीं की हमारे युग की यटिकम जब चलती थी तो हिलती थी." मारभट ने समझाया.
"सही कह रहे हो. वास्तव में यटिकम ही चल रही है. बात यह है की हमारे युग के मकान इसी प्रकार बने थे अतः मैं समझा की अपने मकान में बैठा हूँ." चीन्तिलाल ने कहा.
इनकी इन्हीं बातों के बीच आधा घंटा बीत गया. फ़िर ट्रेन धीमी होने लगी. शायद कोई स्टेशन आ रहा था. फ़िर वह रूक गई. इस स्टेशन से कुछ यात्री इनके डिब्बे में भी चढ़े और साथ में टी.टी. भी.
"आप लोग अपना टिकट दिखाइये." टी.टी. ने इन लोगों से कहा. टी.टी. की पूरी बात ये लोग समझ ही नहीं पाये. क्योंकि प्रोफ़ेसर इत्यादि जब इनसे बोलते थे तो आधी अपनी भाषा और आधी इनकी भाषा मिलकर बोलते थे. जबकि टी.टी. ने शुद्ध हिन्दी में इनसे टिकट माँगा था.
"ये क्या कह रहा है?" सियाकरण ने मारभट की ओर देखकर पूछा.
"शायद यह कुछ मांग रहा है." मारभट ने टी.टी. का फैला हाथ देखकर अनुमान लगाया. टी.टी. ने एक बार फ़िर इनसे टिकट माँगा.
"ये टिकट क्या होता है?" मारभट ने टूटी फूटी हिन्दी में उससे पूछा.
टी.टी. को शायद इनसे ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी. अतः वह इनका मुंह देखने लगा. फ़िर बोला, "गाड़ी में बैठ गए और यही नहीं पता की टिकट क्या होता है. क्या दूसरी दुनिया में रहते हो? मैं कहता हूँ चुपचाप टिकट निकालो वरना अन्दर करवा दूँगा." इसी के साथ ही उसने संकेत किया और दो रेलवे कांस्टेबिल उनके पास आकर खड़े हो गए.
"ये तो क्रोध में मालुम हो रहा है. आख़िर ये क्या मांग रहा है?" चोटीराज ने कहा.
"मेरा विचार है की यह याटिकम का मालिक है, और हमसे मुद्राएँ मांग रहा है. अपने यल को चारा खिलाने के लिए."
सियाकरण ने अपना थैला उठाया और उसे खोलने लगा. टी.टी. ने यह समझ कर कि वह टिकट निकाल रहा है बोला, "जब पुलिस देखी तो होश ठिकाने आ गए. आगे से किसी सरकारी आदमी के साथ मज़ाक मत करना." उसे क्या पता था कि इन प्राचीन युग्वासियों को मज़ाक का अर्थ भी नहीं मालूम. सियाकरण ने अपने थैले से दो तीन मुद्राएँ निकालीं और टी.टी. की ओर बढ़ा दीं.
तांबें की मुद्राएँ देखकर टी.टी. का पारा फ़िर चढ़ गया. वह बोला, "बहुत हो चुका. अब अगर तुम लोगों को सबक न सिखाया तो मेरा नाम भी राम खिलावन नहीं. सिपाहियों, इन पर निगरानी रखो. अगले स्टेशन पर इन्हें उतार कर जेल भिजवा देना." वह सिपाहियों से बोला
"यह तो क्रोध में मालूम हो रहा है. क्या बात हो गई?" सियाकरण टी.टी. की ज्वालामय मुख मुद्रा देखकर मारभट से चुपके से बोला.
"मेरा विचार है कि तुमने उसे मुद्राएँ कम दी हैं. थोडी और दे दो." मारभट ने सुझाया.
"ठीक है. मैं और दे देता हूँ." सियाकरण थैले से और मुद्राएँ निकलने लगा किंतु इतनी देर में टी.टी. इन लोगों को सिपाहियों की निगरानी में देकर दूसरी तरफ़ चला गया था.
अतः सियाकरण को दुबारा मुद्राएँ थैले में रख देनी पड़ीं.
उधर एक सिपाही उनके लबादे को देखकर बोला, "क्यों बे, कपड़े तो सन्यासियों वाले पहन रखे हैं और यात्रा बिना टिकट करता है!"
इन लोगों की समझ में उसका एक भी शब्द नहीं आया और ये उसका मुंह देखने लगे.
"क्यों बे, ये भोले लोगों की तरह मुंह क्या देख रहा है. क्या किसी दूसरी दुनिया से आया है!" दूसरे सिपाही ने डपट कर कहा.
ये लोग अब भी उसकी बात नहीं समझे. अंत में मारभट ने टूटी फूटी हिन्दी में कहा, "हम लोग प्राचीन युग से आये हैं अतः आपकी बात नहीं समझ पा रहे है."
"क्या? कौन से शहर से? यह चीनुग कौन सा शहर है? इस रूट पर तो नहीं है."
"कहीं ये चीन तो नहीं कह रहे हैं?" दूसरे ने अनुमान लगाया.
"हे ईश्वर! तुम लोग चीन से बिना टिकट यात्रा करते हुए यहाँ आ रहे हो. तब तो बहुत खतरनाक मुजरिम हो तुम लोग." वह एकदम सीधा सावधान होकर बैठ गया. हाथ अपने होलेस्टर पर रख लिया मानो उन चारों के हिलते ही उनपर गोली चला देगा.
गाड़ी एक बार फ़िर रूक गई. क्योंकि फ़िर से कोई स्टेशन आ गया था. सिपाहियों ने इनसे कहा, "उतरो तुम लोग."
सिपाहियों का हुक्म इनकी समझ में आ गया. वे लोग वहीँ ट्रेन से उतर गए. दोनों सिपाही इनकी बगल में चल रहे थे और साथ ही उन्हें रास्ता भी बताते जा रहे थे.
"इस युग के लोग कितने अच्छे हैं. हम लोगों को रास्ता बता रहे हैं ताकि कहीं हम लोग रास्ता न भूल जाएँ." चीन्तिलाल ने खुश होकर कहा.
"सही कहा तुमने. हम लोग घूमने फिरने के बाद इन्हें अवश्य धन्यवाद देंगे." मारभट ने कहा.
कुछ देर बाद ये लोग पुलिस स्टेशन में थे. यहाँ के लोगों को एक ही प्रकार की वर्दियां पहने देखकर इन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ.
"ये लोग एक ही प्रकार के कपड़े क्यों पहने हुए हैं?" चीन्तिलाल ने आश्चर्य से पूछा.
"हाँ यह बात तो है. हो सकता है इस युग में रास्ता बताने वाले इसी प्रकार के कपड़े पहनते हों. हमारे युग में भी तो बच्चे खिलाने वाले एक ही प्रकार के कपड़े पहनते थे." चोटीराज ने कहा.
उधर सिपाहियों ने जब थानेदार को बताया की ये लोग बिना टिकट यात्रा कर रहे थे तो उसने इनको हवालात में बंद करने का हुक्म दिया. फ़िर ये लोग लाकअप में पहुँचा दिए गए जहाँ पहले से एक मोटा तगड़ा व्यक्ति बैठा हुआ था.
"मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है. अभी तक तो ये हमें घुमा रहे थे और अब कोठरी में बंद कर दिया." चोटीराज बोला.
"इस कोठरी को शायद हवालात कहते है." मारभट ने कहा.
उधर जब थानेदार को पता चला कि ये लोग चीन की सीमा पार करके आ रहे हैं तो वह एकदम से हडबडा कर उठ खड़ा हुआ और बोला, "ये तो बहुत खतरनाक हैं. इन्हें तो फ़ौरन जेल में शिफ्ट कर दो. मुकदमा बाद में चलता रहेगा."
एक बार फ़िर कुछ सिपाही हवालात पहुंचे और उन्हें निकालने के लिए ताला खोलने लगे. अभी वे ताला खोल ही रहे थे कि बाहर गोलियां चलने कि आवाज़ सुनाई दी. वे सिपाही बाहर भागे. जैसे ही वे थानेदार के कमरे में पहुंचे, पाँच छः नकाबधारी व्यक्तियों के हाथों में दिख रही पिस्तौलों ने उन्हें हाथ ऊपर करने पर मजबूर कर दिया. उन व्यक्तियों ने थाने के सभी लोगों को अपनी पिस्तौलों से कवर कर लिया था.
"क्या बात है? तुम लोग हमसे क्या चाहते हो?" थानेदार ने उनसे पूछा.
"तुम्हारे लाकअप में हमारा साथी बंद है. हम उसे छुड़ाने आए हैं." उनमें से के व्यक्ति बोला.
"ओह! तो तुम लोग बैंक डकैती वाले गिरोह के आदमी हो."
"तुमने सही पहचाना." फ़िर उस व्यक्ति ने अपने साथी को लाकअप खोलकर बंद साथी को लाने के लिए कहा. उसने सिपाहियों से कुंजी ली और लाकअप की ओर चला गया. फ़िर जब कुछ देर के बाद वह वापस आया तो उसके साथ उसके साथी के साथ चारों प्राचीन युगवासी भी थे.
"ये किन कार्टूनों को पकड़ लाये?" वह व्यक्ति जो थानेदार से बात कर रहा था और शायद उनका सरदार भी था, बोला.
"बॉस, ये हमें लाकअप में बंद मिले थे." उस व्यक्ति ने जवाब दिया.
"ठीक है. फ़िर आज हम भी थोड़ा पुण्य कम लेते हैं." कहते हुए वह व्यक्ति चारों प्राचीन युगवासियों से बोला, "तुम लोग यहाँ से भाग जाओ."
मारभट इत्यादि उसकी बात सुनकर बाहर जाने लगे.
"ये तुम लोग क्या कर रहे हो? ये बहुत खतरनाक मुजरिम हैं." थानेदार ने अपनी कुर्सी से उठने की कोशिश की.
"चुपचाप बैठे रहो. वरना गोली अन्दर और भेजा बाहर होगा." सरदार ने फ़िर थानेदार को बिठा दिया. कुछ देर बाद जब मारभट इत्यादि उनकी नज़रों से गायब हो गए तो वे लोग भी अपने साथी को लेकर बाहर निकल गए.
"अगर मैंने उस बैंक डकैत और चारों मुजरिमों को दुबारा न बंद कराया तो मेरा नाम भी थानेदार शेरखान नहीं. तुम लोग मेरा मुंह क्या देख रहे हो. जाओ ढूँढो उन लोगों को." वह अपने सिपाहियों पर दहाड़ा और सिपाही जल्दी जल्दी बाहर निकल गए. उसके बाद थानेदार स्वयं अपनी कैप उठाकर बाहर निकल गया.
 
 
 
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