खजाने-की-तलाश (Khazane ki Talash),,-09

ये तो मनुष्य हैं. फ़िर इन्हें भूत कौन कह रहा था?" एक इंसपेक्टर ने कहा.
"
मैं तो ओझा जी को भी साथ लेता आया था. भूतों को काबू में करने के लिए." एक सिपाही ने कहा. उसके साथ बड़ी दाढी और जटाओं वाले गेरुआ वस्त्रधारी एक महाशय खड़े थे.
तुम यहाँ क्या हंगामा कर रहे थे?" इंसपेक्टर ने डपट कर उनसे कहा.
सियाकरण और मारभट ने एक दूसरे की ओर देखा, फ़िर सियाकरण बोला, "ये भी कोई दानेदार लगता है. भाग लो वरना हम फ़िर कोठरी में बंद कर दिए जायेंगे." फ़िर वे लोग सरपट दौड़ पड़े. इससे पहले कि इंसपेक्टर इत्यादि कुछ कर पाते, वे लोग दो तीन गलियां फलांगते हुए गायब हो चुके थे.

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चोटीराज और चीन्तिलाल हाल के हंगामे से काफी घबरा उठे थे. और इसी चक्कर में दौड़ते हुए एक गली में घुस गए. उस गली से निकलने के बाद वे एक अन्य सड़क पर पहुँच गए. सामने ही एक इमारत दिखाई पड़ रही थी. ये लोग दौड़ते हुए उसमें घुस गए. अन्दर घुसने पर उन्होंने दो व्यक्तियों को सामने ही खड़ा पाया. इन व्यक्तियों की दाढियां सीने तक झूल रही थीं और सर सफाचट थे. आँखों पर मोटे मोटे चश्मे चढ़े हुए थे.
"
मि० मैडमैन, एक पेशेंट और आया." पहले ने कहा.
"
यह कैसे कह सकते हो? हो सकता है दोनों ही पेशेंट हों." दूसरे ने कहा.
"
इम्पोसिबिल, एक तो लेकर आया है. अतः वह पेशेंट हो नहीं सकता."
"
किंतु दोनों में से पेशेंट हैं कौन मि० पेंचराम?" दूसरे ने पूछा.
"
यह तो उन्ही से पूछ लो. वैसे मेरा विचार है की वो वाला पेशेंट है." पहले ने चोटीराज की ओर संकेत किया.
"
पागलों के बीच रहकर तुम भी आधे पागल हो गए हो. जो पागल और सही के बीच अन्तर नहीं कर पा रहे हो. मुझे पूरा विश्वास है की दूसरा वाला पागल है." दूसरे ने कहा. दोनों वास्तव में पागलखाने के डॉक्टर थे और वह इमारत एक पागलखाना थी.

"
क्यों, तुममें पेशेंट आई मीन मरीज़ कौन है?" पहले ने उन दोनों से पूछा. इस पर चोटीराज अपनी भाषा में कुछ बोला जिसे ये लोग समझ नहीं पाये.
"
मैं कह रहा था की यही पागल है. पता नहीं क्या बडबडा रहा है."
"
हम लोग बहुत दूर से दौड़ते हुए आ रहे हैं." चीन्तिलाल भी बोल उठा.
"
ओह! उल्टा सीधा तो दूसरा भी बोल रहा है. इसका मतलब की वह भी पागल है." दूसरे ने कहा.
"
हमारे अस्पताल में यह पहला केस है जब दो पागल एक दूसरे को भरती कराने आए हैं." पहले ने अपना चश्मा ऊँगली से ऊपर चढाते हुए कहा.
"
इन लोगों को भी रूम नं० अट्ठारह में पहुँचा दिया जाए. वहां काफ़ी जगह है." दूसरे ने कहा. फ़िर उन्होंने प्राचीन युगवासियों के हाथ पकड़े और अपने साथ ले जाने लगे.
"
चोटीराज, क्या इन मनुष्यों की ऑंखें कुछ भिन्न नहीं हैं?" चीन्तिलाल ने गौर से दोनों के चश्मे देखते हुए कहा.
"
हाँ हैं तो. मुझे तो पूरी तरह ये उल्लू की ऑंखें लग रही हैं. कितना बदल गया है संसार. मनुष्य की ऑंखें तक बदल गईं हैं."
उधर मि० पेंचराम ने मैडमैन को संबोधित किया, "मि० मैडमैन, आपका क्या विचार है? इनका पागलपन किस प्रकार का है?"
"
मेरा विचार है की ये बड़बोला से पीड़ित हैं. जिसमें व्यक्ति हर समय कुछ न कुछ बडबडाता रहता है."
चोटीराज जो की मैडमैन के साथ चल रहा था, उसने मैडमैन के चश्मे पर हाथ डाल दिया. और मैडमैन का चश्मा नीचे गिर पड़ा.
"
यह क्या? इसकी तो ऑंखें ही गिर पड़ीं!" चीन्तिलाल ने आश्चर्य से कहा.



मैडमैन ने जल्दी से चश्मा उठाकर दुबारा लगाया और बोला, "ये तो बहुत खतरनाक पागल है. अभी तो मेरा चश्मा गया था."
"
इन्हें सावधानी से ले चलो. इतने दिनों तक पागलों में रह चुके हो किंतु अभी तक उन्हें संभालना नहीं आया." पेंचराम ने सावधान किया.
फ़िर बाकी रास्ता दोनों ने सावधानी से तय किया. कुछ ही देर में वे कमरा नं0 अट्ठारह में पहुँच गए. उन्होंने दोनों प्राचीन युगवासियों को अन्दर धकेला और बाहर से दरवाज़ा बंद कर दिया. इस कमरे में पहले से ही छः सात पागल उपस्थित थे. वे पागल कुछ देर तक गौर से उनकी और देखते रहे फ़िर उनमें से एक उठा और चोटीराज के चेहरे पर हाथ फेरने लगा. चोटीराज और चीन्तिलाल आश्चर्य से उसे देख रहे थे.


"
वाह! एकदम क्लासिकल, क्या चेहरा है. ऐसा चेहरा तो कभी कभी ही नज़र आता है. इसका पोर्ट्रेट तो एकदम फैन्टास्टिक बनेगा." वह पागल चीखा और फ़िर एक कोने में दौड़ गया जहाँ एक कैनवास बोर्ड और कुछ रंग और ब्रश पड़े थे. फ़िर चोटीराज का पोर्ट्रेट तैयार होने में केवल पाँच मिनट लगे. यह अलग बात है की यह पोर्ट्रेट चोटीराज की बजाये किसी शुतुरमुर्ग का अधिक प्रतीत हो रहा था जिसकी चोंच गायब थी.
"
यह देखो, मैंने उसका पोर्ट्रेट तैयार कर दिया. यह एक कलाकृति है जो इससे पहले किसी ने न बनाई होगी."
"
वाह वाह. ऐसा पोर्ट्रेट तो बार बार बनना चाहिए. एक और बनाओ." दूसरे पागलों ने शोर मचाकर इस प्रकार दाद दी मानो कोई कवि सम्मलेन हो रहा है.
"
यह दोबारा नहीं बन सकती. एक शाहकार केवल एक ही बार बनाया जा सकता है." उस पागल ने कहा जो शायद पहले कोई चित्रकार था.
"
वाह वाह, क्या बात कही है. एक शाहकार केवल एक ही बार बन सकता है. इसी बात पर मुझे एक शेर याद आ गया है." दूसरा पागल बोला.
"
अरे कवि जी, अब आप अपना कवि सम्मलेन न शुरू कर दीजियेगा." एक अन्य पागल बोला.
"
नहीं, मैं केवल एक शेर सुनाऊंगा." कवि ने गिडगिडा कर कहा.
"
अच्छा ठीक है. सुना दो. तुम भी क्या याद करोगे." वही पागल बोला.
"
तो सुनो
वह कार है, वह शाहकार है, वाह शाहों की कार है.
फुफकार कर मैंने की शायरी तो उसके चेहरे से बरसती फटकार है."
"
वाह वाह, क्या शेर है. लगता है बादल गरज रहा है. बिजली कड़क रही है." एक पागल ने उठकर दाद दी. बाकी ऐसे ही बैठे रहे.
"
तो इसी बात पर एक और शेर सुनो." उसने एक और शेर जड़ दिया. इस बार उसके शेर पर किसी ने दाद नहीं दी. उनमें से एक बोला, "मैंने मना किया था कि कवि सम्मेलन न शुरू करो. किंतु तुम माने नहीं. डॉक्टर, तुम ही इसको मना करो."
फ़िर डॉक्टर उठा, जिसके चेहरे पर चश्मे का गहरा निशान था. उसने इस प्रकार अपनी आँखों पर हाथ फेरा मानो चश्मे की पोजीशन सही कर रहा हो, फ़िर बोला, "इसको बहुत खतरनाक बीमारी है. इसका इलाज यही है कि इसे दोनों टांगें उठाकर खड़ा कर दिया जाए. फ़िर इसको कोई शेर याद नहीं आएगा."

"
किंतु यह दोनों टांगें उठाकर खड़ा कैसे खड़ा कैसे रह पायेगा?" चित्रकार ने पूछा.
"
सीधी सी बात है. इसे सर के बल खड़ा कर दो." डॉक्टर ने स्पष्टीकरण किया.
फ़िर कई लोगों ने मिलकर कवि जी को पकड़ा और सर के बल खड़ा कर दिया. चोटीराज और चीन्तिलाल यह सब तमाशा देख रहे थे. वह पागल जिसे लोग डॉक्टर कह रहे थे, उनके पास आया और गौर से उन्हें देखने लगा. फ़िर उसने एक साथ दोनों की कलाई पकड़ी मानो नब्ज़ देख रहा हो. कुछ देर इसी प्रकार देखने के बाद बोला, "तुम दोनों की नब्ज़ एक ही रफ़्तार से चल रही है. अर्थात तुम दोनों को एक ही बीमारी है."

"
यह क्या कह रहा है?" चीन्तिलाल ने चोटीराज की और देखा. डॉक्टर ने उन्हें बोलते हुए देखकर कहा, "घबराने की कोई बात नहीं. यह कोई ऐसी खतरनाक बीमारी नहीं है. तुम्हें केवल मुर्गोफोबिया हो गया है. और इस कारण तुम्हें मुर्गों से डर लगता है. मैं तुम्हें कुछ टेबलेट्स लिख देता हूँ. मेरा पैड कहाँ गया?" डॉक्टर इधर उधर देखने लगा. फ़िर उसने अपनी जेब से एक मुड़ा तुड़ा कागज़ निकाला और नुस्खा लिखने लगा. फ़िर उसने वह कागज़ चोटीराज को थमाया और बोला. "लो ये टेबलेट्स. दस चम्मच सुबह और चार शाम को खा लेना. अब मेरा बिल निकालो, तीन सौ अस्सी रुपये पैंतीस पैसे."

चोटीराज ने कागज़ पकड़ लिया और उसपर लिखे नुस्खे को पढने की कोशिश करने लगा.
यह उसी प्रकार की बात थी की अंग्रेज़ी जानने वाले किताबों के शौकीन को जर्मन भाषा की पुस्तक मिल जाए और वह केवल उसके शब्द देखकर खुश होता रहे. डॉक्टर अभी तक उसके सामने हाथ फैलाए खड़ा था अपना बिल लेने के लिए. फ़िर जब काफ़ी देर तक मरीजों ने उसका बिल नहीं चुकाया तो उसे तैश आ गया और उसने उछल कर चोटीराज के गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया.

"तूने मेरे मित्र को क्यों मारा!" चीन्तिलाल को भी क्रोध आ गया और उसने एक थप्पड़ डॉक्टर के सीने पर जड़ दिया. डॉक्टर के लिए चीन्तिलाल का थप्पड़ किसी बुलडोज़र से कम नहीं था अतः उसकी पीछे की ओर रेस हो गई. और उसको रोकने के लिए शेष पागलों को अपना सहयोग देना पड़ा.
"
अरे मुझे उन लोगों ने मारा. एक तो मेरा बिल नहीं दिया ऊपर से मारा भी." डॉक्टर भों भों करके पूरे वोलयूम में रूदन करने लगा. डॉक्टर को रोता देखकर कई पागलों को हमदर्दी का भूत सवार हो गया और वे मिलकर चोटीराज तथा चीन्तिलाल से मोर्चा लेने के लिए तैयार हो गए और उन्हें घूरते हुए आगे बढ़ने लगे.
"
ये लोग तो हमसे लड़ने आ रहे हैं. क्या किया जाए?" चोटीराज ने पूछा.
"
करना क्या है. इन्हें बता दो कि हम यल के सींगों के पुजारी हैं." चीन्तिलाल ने उनको घूरते हुए कहा.
फ़िर कुछ ही देर में वहां अच्छा खासा हंगामा खड़ा हो गया. कवि और चित्रकार को छोड़कर सारे पागल दोनों से लिपट पड़े थे. फ़िर वहां अच्छा खासा हंगामा बरपा हो गया.

"
वाह वाह क्या सीन है. ऐसा दृश्य तो यादगार रहेगा. मैं अभी इसको उतारता हूँ." चित्रकार ने तुंरत कैनवास पर अपनी चित्रकारी शुरू कर दी.
"
अरे मुझे तो इस लड़ाई पर कई शेर एक साथ याद आ रहे हैं. लो सुनो तुम लोग भी क्या याद करोगे." फ़िर वह हलक फाड़ कर अपने शेर सुनाने लगा.
लड़ाई ने अब काफी ज़ोर पकड़ लिया था. चीन्तिलाल और चोटीराज पागलों को बार बार झटक कर अपने से अलग करते थे किंतु वे फ़िर लिपट जाते थे. उधर चित्रकार जी लगातार चित्र बना रहे थे. किंतु उन्हें अपने इस काम में काफी परेशानी हो रही थी. क्योंकि सीन बार बार बदल जाता था. कवि जी शेर पर शेर दागे जा रहे थे.
फ़िर अचानक बाहर का दरवाजा खुला और तीन चार व्यक्ति अन्दर घुस आए. उन लोगों ने चोटीराज और चीन्तिलाल को पागलों से अलग किया और उन्हें बाहर खींच ले गए. उन्होंने दरवाज़ा बाहर से बंद कर दिया.

कवि जे ने रोते हुए दोनों की विदाई पर शेर पढ़ा. चित्रकार भी गुमसुम हो गया. क्योंकि उसका पोर्ट्रेट अधुरा रह गया था.
उधर उन व्यक्तियों ने चोटीराज और चीन्तिलाल को जीप में बिठाया और चल पड़े.
"
ये लोग हमें कहाँ ले जा रहे हैं?" चीन्तिलाल ने पूछा.
"
जहाँ भी ले जा रहे हैं चले चलो. क्योंकि इन्होंने हमें उन दुष्ट व्यक्तियों से बचाया है."
उन्हें ले जाने वालों में से एक दूसरे से पूछ रहा था, "बॉस, आपने इन पागलों को क्यों छुड़ाया है?"
"
ये पागल मेरे काम के हैं. मैं बहुत देर से खिड़की से इनकी लड़ाई देख रहा था. इनमें अद्भुत शक्ति है. हमारे लिए ये पूरी तरह उपयुक्त हैं." बॉस ने जवाब दिया.
कुछ दूर चलने के बाद जीप एक बड़ी इमारत के सामने जाकर रुकी.
वे लोग जीप से उतर पड़े और अन्दर जाने लगे. प्राचीन युगवासी भी उनके साथ थे.
"
हमें बहुत जोरों की भूख लगी है. क्या यहाँ भोजन मिलेगा?" चीन्तिलाल ने उनसे पूछा जिसे उन्होंने केवल एक पागल की बड़बड़ाहट समझा.

मारभट और सियाकरण जब गली से बाहर निकले तो उन्हें सामने ही एक होटल दिखाई दिया. वे लोग उसमें घुस गए. अन्दर कुर्सियों पर लोग बैठे थे.
"
अरे देखो, उस मनुष्य के मुंह से धुवां निकल रहा है. उसके मुंह में आग लग गई है." मारभट ने एक मेज़ की ओर देखा जिसके पीछे बैठा व्यक्ति सिगरेट पी रहा था.
"
मुंह में नहीं बल्कि पेट में लगी है. उसे फ़ौरन बुझाओ वरना बेचारा जल जाएगा." सियाकरण बोला फ़िर मारभट ने आव देखा न ताव और वहां पहुंचकर मेज़ पर रखा पूरा जग उस व्यक्ति के सर पर उंडेल दिया.

"
अबे उल्लू के पट्ठे, क्या पागल हो गया है. यह क्या कर दिया?" वह व्यक्ति चिल्लाया.
"
तुम्हारे मुंह में आग लगी थी. वही मैंने बुझाई है." मारभट ने कहा.
"
आग लगी होगी तुम्हारे मुंह में. मेरा सारा सूट सत्यानास करके रख दिया." उस व्यक्ति ने मारभट का गरेबान पकड़कर दो तीन झटके दिए.
"
वाह, एक तो मैंने तेरा भला किया और तुम क्रोध दिखाते हो. हमारे युग में तो ऐसा नहीं होता था." मारभट ने अपना गरेबान छुड़ाते हुए कहा.
"
तेरा दिमाग सनक गया है. तुझे अवश्य मेरे दुश्मनों ने मुझे नीचा दिखाने के लिए भेजा है. मैं तुझे छोडूंगा नहीं." वह व्यक्ति मारभट से लिपट गया और फ़िर वहां अच्छा खासा हंगामा मच गया. यह हंगामा इतना बढ़ गया की मैनेजर को अपने केबिन से उठकर आना पड़ा.

फ़िर उसने बीच बचाओ करके मामले को रफा दफा किया.
"
आप मेरे साथ आइये." मैनेजर ने मारभट और सियाकरण को संबोधित किया. मारभट और सियाकरण उसके पीछे चल पड़े. मैनेजर उन्हें अपने कमरे में ले आया और कुर्सियों पर बैठने का संकेत किया.
"
हाँ, अब आप लोग बताइये कि क्या बात थी?"
"
बात क्या थी. हमने तो उसके मुंह में लगी आग बुझाई थी और वह हमसे लड़ने लगा." सियाकरण बोला.
"
मुंह में आग लगी थी?" मैनेजर ने आश्चर्य से कहा. "लेकिन आपको इसका पता कैसे चला?"
"
हमने स्वयें देखा था. उसके मुंह में एक नाली लगी थी और उसमें से धुंआ निकल रहा था." सियाकरण ने बताया.
"
ओह! अब मैं समझा." मैनेजर पूरी बात समझ गया और मन ही मन बडबडाया, "मैंने अपने पूरे जीवन में पहली बार इतने मूर्ख व्यक्ति देखे हैं."

उसने कहा, "आप लोगों को उसकी आग नहीं बुझानी चाहिए थी. क्योंकि वह आग उसने अपने मुंह में स्वयें जान बूझकर लगाई थी."
"
स्वयें लगाई थी! क्या मतलब?" मारभट ने आश्चर्य से पूछा.
"
कुछ लोगों को जब ठण्ड अधिक लगती है तो वे उससे बचने के लिए अपने अन्दर आग सुलगा लेते हैं. और फ़िर उससे तापकर सर्दी भगाते हैं."
"
ओह! अब मैं समझा. तभी तो मैं कहूं कि वह इतने क्रोध में क्यों आ गया था. अवश्य यही बात थी." सियाकरण कि समझ में मैनेजर की बात आ गई थी.
"
ये लोग पूरे डफर हैं. इतने कि इनको अपने यहाँ नौकरी पर रखा जा सकता है." मैनेजर ने फ़िर अपने मन में कहा और उनसे बोला, "क्या आप लोग कहीं नौकरी करते हैं?"
सियाकरण और मारभट ने एक दूसरे की ओर देखा फ़िर सियाकरण बोला, "मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा. यह नौकरी क्या होती है?"

"कमाल है. क्या तुम लोग किसी दूसरी दुनिया से आए हो? जिसके लिए लोगों में लूटमार मची है. वह तुम लोग जानते ही नहीं कि होती क्या है. मेरा मतलब था कि क्या तुम यहाँ पर मेरे साथ काम करोगे?"
"
अर्थात तुम्हारा मतलब है कि जो कुछ तुम यहाँ पर करते हो वही हम लोग भी करें." मारभट ने पूछा.
"
हाँ. तुम लोग ठीक समझे. अब तुम लोग बाहर बैठ जाओ फ़िर मैं बताऊंगा कि तुम्हें क्या करना है." मैनेजर ने कहा और मारभट तथा सियाकरण उठकर बाहर चले आए.
उनके जाने के बाद मैनेजर ने फोन उठाया और किसी का नंबर मिलाने लगा. फ़िर दूसरी तरफ़ किसी को बताने लगा, "हैलो बॉस, आज दो मुर्गे फंसे हैं. एकदम डफर हैं. मेरा विचार है कि उन्हें हम ब्लैक क्रॉस की पार्टी के ख़िलाफ़ प्रयोग कर सकते हैं."

"
ठीक है. किंतु उनके बारे में पूरी छानबीन कर लेना. कहीं वे कोई जासूस न हों." दूसरी ओर से आवाज़ आई.
"
आप चिंता मत करिए. पूरी तरह छानबीन के बाद ही मैं उन्हें काम सौंपूंगा." मैनेजर ने कहा. दूसरी तरफ़ से रिसीवर क्रेडिल पर रखने की आवाज़ आई और मैनेजर फोन रखकर केबिन से बाहर आ गया. हाल में मारभट और सियाकरण बैठे हुए बुरा मुंह बना बनाकर कोका कोला पी रहे थे. मैनेजर उनके पास पहुँचा और बोला, "क्या तुम लोग काम करने के लिए तैयार हो?"
"
हाँ. हम तैयार हैं? किंतु पहले ये बताओ की इस बोतल में यह बदबूदार चीज़ क्या है?"
"
यह तो कोका कोला है. यह तुम्हें कहाँ मिला?"
इसपर मारभट ने काउंटर की ओर संकेत करते हुए कहा, "मैंने इसे वहां देखा था. मैंने सोचा कि देखें यह क्या है अतः मैंने उसके पीछे खड़े व्यक्ति से यह मांग लिया."
"
ठीक है. अब तुम लोगों को यह करना है कि मैं तुम्हें कुछ डिब्बे दूँगा. तुम उन्हें एक जगह पहुँचा देना." फ़िर मैनेजर उन्हें यह बताने लगा कि वे डिब्बे उन्हें कहाँ पहुंचाने हैं. समझाने के बाद जब उसने उनसे पूछा कि कुछ समझ में आया तो उन्होंने नहीं में सर हिला दिया.
"
ओह! यह तो प्रॉब्लम हो गई." मैनेजर ने सर सहलाते हुए कहा, "अच्छा ऐसा करते हैं कि मैं तुम्हारे साथ एक आदमी भेज दूँगा. वह तुमको उस इमारत तक पहुँचा देगा. फ़िर तुम इमारत के अन्दर चले जाना और डिब्बे दे देना."
"
हाँ. यह हो सकता है." दोनों ने सहमती प्रकट की. फ़िर मैनेजर उन्हें लेकर एक कमरे में गया और दोनों को एक एक प्लास्टिक का डिब्बा पकड़ा दिया. फ़िर उसने एक व्यक्ति को बुलाया और बोला, "इन दोनों को ब्लैक क्रॉस की इमारत नं. एक में पहुँचा दो. तुम अन्दर न जाना."
उस व्यक्ति ने सर हिला दिया और उन्हें लेकर बाहर निकल गया.







     


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