खजाने-की-तलाश (Khazane ki Talash),,-05
"भला
किताब से किस तरह टॉस होगा?
उछालने
पर वह फट नहीं जायेगी?"
रामसिंह
ने आश्चर्य से कहा.
"किताब उछलकर टॉस नहीं होता उल्लुओं. मैं बीच से इसे खोलूँगा. अगर इसपर लिखा पेज नंबर सम आया तो हम लोग दाएँ ओर जायेंगे और अगर विषम आया तो बाएँ ओर जायेंगे."
फ़िर प्रोफ़ेसर ने किताब खोली, साथ ही उसके मुंह से निकला, "ओह, ये क्या!"
"क्या हुआ?" दोनों उसकी ओर झुक पड़े.
"इसके दायें पेज पर तो विषम नंबर छपा है और बाएं पर सम."
"ऐसा है, तुम हर जगह पर किताब से काम लेने की कोशिश न किया करो." कहते हुए शमशेर सिंह ने झुककर एक चपटा पत्थर का टुकडा उठाया और उसकी एक सतह पर थूकते हुए कहा, "मैं इस पत्थर को उछाल रहा हूँ. अगर गीला आया तो दाएँ और चलेंगे वरना बाएं ओर."
पत्थर का टुकडा नीचे गिरा और उसपर गीला वाला भाग ऊपर था. अतः उन लोगों ने दायें ओर चलना तय किया. सुरंग में काफ़ी अँधेरा था. इतना कि प्रोफ़ेसर को हर समय टॉर्च जलाए रखनी पड़ रही थी. साथ ही उन लोगों को ज़रा भी आभास न हो सका कि सुरंग सीधी जाने की बजाये गोलाई में घूम रही है.
जब उन लोगों को चलते चलते काफी देर हो गई और सुरंग के उस सिरे का चिन्ह भी न दिखाई दिया जिससे वे लोग चले थे तो वे लोग चौंके.
"यार, यह सुरंग क्या किसी ने खींच कर लम्बी कर दी है? मैंने आते में सामान उठाने में जितनी बार कंधे बदले थे उससे तीन गुनी बार अब तक बदल चुका हूँ. किंतु सुरंग का मुंह तो क्या, अब तक हलक भी नहीं दिखा." रामसिंह ने एक बार फ़िर एक कंधे का सामान दूसरे पर ट्रांसफर किया.
"हाँ, यह तो तुम सही कह रहे हो." प्रोफ़ेसर और शमशेर सिंह चौंक कर ठिठक गए.
, "लगता है हम लोग ग़लत रास्ते पर चले आये हैं."
"लगता नहीं पूरा विश्वास है कि हम लोगों ने ग़लत रास्ता चुना." शमशेर सिंह ने कहा.
"फिर क्या किया जाए? क्या वापस लौट चलें?" रामसिंह ने पूछा.
"लौटने को तो हम बाद में लौट सकते हैं. मेरा विचार हैं कि आगे देख लिया जाए. हो सकता हैं किस्मत हम पर मेहरबान हो जाए और खजाना हमारे हाथ लग जाए." प्रोफ़ेसर ने कहा.
"तो ऐसा करते हैं कि अब निशान लगाते हुए आगे बढ़ते हैं. वरना इस भूलभुलैया में फंसकर हमारी हड्डियों का भी पता नहीं चलेगा." शमशेर सिंह बोला.
प्रोफ़ेसर ने अपना सूटकेस खोलकर एक चाक निकाली. फिर वे लोग चाक द्वारा दीवार पर निशान लगाते हुए आगे बढ़ने लगे. प्रत्येक व्यक्ति के दिल की धड़कने इस शंका से तेज़ हो गई थीं कि न जाने आगे क्या निकलता हैं. वैसे तो पूरी सुरंग में सीलन, चमगादडों की बीट इत्यादि की हलकी बदबू फैली हुई थी, किंतु यहाँ पहुंचकर यह बू और तेज़ हो गई थी. और जैसे जैसे वे लोग आगे बढ़ रहे थे, इस फैली हुई गंध में कुछ और गंध मिश्रित होकर अजीब प्रकार की गंध फैला रही थी.
"यार, यह गंध कैसी हैं?" रामसिंह ने नाक सिकोड़ते हुए कहा.
"सीलन वगैरह की बदबू हैं. यह कोई साफ़ सुथरा एयर कंडीशंड कमरा तो हैं नहीं कि हर ओर सुगंध फैली रहे. अगर खजाने को पाना हैं तो इतनी बदबू तो बर्दाश्त करनी ही पड़ेगी." प्रोफ़ेसर ने कहा.
अब सुरंग में कई मोड़ एक साथ मिले. और एक मोड़ से जैसे ही वे लोग घूमे, उन्होंने स्वयं को एक विशाल कमरे में पाया.
विचित्र गंध अब कुछ और तेज़ हो गई थी.
"यह कैसी भूलभुलैया हैं? यह पहाडियों को खोदकर कमरे किसने निकाले हैं?" रामसिंह ने आश्चर्य से कहा.
"वह जो भी सभ्यता रही होगी, कोई बहुत विकसित सभ्यता थी. और मेरे विचार से वह सभ्यता पहाड़ों के अन्दर निवास करती थी." प्रोफ़ेसर ने कहा.
"मेरा विचार हैं कि यहाँ खजाना ज़रूर मिलना चाहिए. क्योंकि एक विकसित सभ्यता का धन तो असीम होना चाहिए." शमशेर सिंह बोला.
"ठीक हैं. आओ ढूंढते हैं." प्रोफ़ेसर ने कहा.
फ़िर वे लोग एक एक कोने में अपनी नज़रें गड़ाने लगे.
उन्होंने जमे हुए एक एक पत्थर को हिलाने का प्रयत्न किया. अंत में चार पाँच पत्थरों को इस प्रकार देखने के बाद एक पत्थर वास्तव में हिलने लगा. इस पत्थर को शमशेर सिंह हिला रहा था.
"प्रोफ़ेसर, रामसिंह.." उसने पुकारा, "ज़रा इस पत्थर को अपने स्थान से हटाने में मेरी मदद करो."
फ़िर उन तीनों ने मिलकर ज़ोर लगाया और पत्थर अपने स्थान से हट गया. उसके पीछे वास्तव में एक छोटा सा दरवाजा था. वे लोग उसमें प्रविष्ट हो गए. यह एक और कमरा था. प्रोफ़ेसर ने टॉर्च जलाई और फ़िर वे लोग उन वस्तुओं को आश्चर्य से देखने लगे जो कमरे के बीचोंबीच रखी थीं.
ये लोहे के चार ताबूतनुमा बक्से थे जिनकी लम्बाई कम से कम दस फीट और चौडाई चार फीट थी. ऊँचाई भी अच्छी खासी थी.
"आखिरकार
हम लोग खजाने तक पहुँच ही गए."
शमशेर
सिंह ने एक गहरी साँस ली."किताब उछलकर टॉस नहीं होता उल्लुओं. मैं बीच से इसे खोलूँगा. अगर इसपर लिखा पेज नंबर सम आया तो हम लोग दाएँ ओर जायेंगे और अगर विषम आया तो बाएँ ओर जायेंगे."
फ़िर प्रोफ़ेसर ने किताब खोली, साथ ही उसके मुंह से निकला, "ओह, ये क्या!"
"क्या हुआ?" दोनों उसकी ओर झुक पड़े.
"इसके दायें पेज पर तो विषम नंबर छपा है और बाएं पर सम."
"ऐसा है, तुम हर जगह पर किताब से काम लेने की कोशिश न किया करो." कहते हुए शमशेर सिंह ने झुककर एक चपटा पत्थर का टुकडा उठाया और उसकी एक सतह पर थूकते हुए कहा, "मैं इस पत्थर को उछाल रहा हूँ. अगर गीला आया तो दाएँ और चलेंगे वरना बाएं ओर."
पत्थर का टुकडा नीचे गिरा और उसपर गीला वाला भाग ऊपर था. अतः उन लोगों ने दायें ओर चलना तय किया. सुरंग में काफ़ी अँधेरा था. इतना कि प्रोफ़ेसर को हर समय टॉर्च जलाए रखनी पड़ रही थी. साथ ही उन लोगों को ज़रा भी आभास न हो सका कि सुरंग सीधी जाने की बजाये गोलाई में घूम रही है.
जब उन लोगों को चलते चलते काफी देर हो गई और सुरंग के उस सिरे का चिन्ह भी न दिखाई दिया जिससे वे लोग चले थे तो वे लोग चौंके.
"यार, यह सुरंग क्या किसी ने खींच कर लम्बी कर दी है? मैंने आते में सामान उठाने में जितनी बार कंधे बदले थे उससे तीन गुनी बार अब तक बदल चुका हूँ. किंतु सुरंग का मुंह तो क्या, अब तक हलक भी नहीं दिखा." रामसिंह ने एक बार फ़िर एक कंधे का सामान दूसरे पर ट्रांसफर किया.
"हाँ, यह तो तुम सही कह रहे हो." प्रोफ़ेसर और शमशेर सिंह चौंक कर ठिठक गए.
, "लगता है हम लोग ग़लत रास्ते पर चले आये हैं."
"लगता नहीं पूरा विश्वास है कि हम लोगों ने ग़लत रास्ता चुना." शमशेर सिंह ने कहा.
"फिर क्या किया जाए? क्या वापस लौट चलें?" रामसिंह ने पूछा.
"लौटने को तो हम बाद में लौट सकते हैं. मेरा विचार हैं कि आगे देख लिया जाए. हो सकता हैं किस्मत हम पर मेहरबान हो जाए और खजाना हमारे हाथ लग जाए." प्रोफ़ेसर ने कहा.
"तो ऐसा करते हैं कि अब निशान लगाते हुए आगे बढ़ते हैं. वरना इस भूलभुलैया में फंसकर हमारी हड्डियों का भी पता नहीं चलेगा." शमशेर सिंह बोला.
प्रोफ़ेसर ने अपना सूटकेस खोलकर एक चाक निकाली. फिर वे लोग चाक द्वारा दीवार पर निशान लगाते हुए आगे बढ़ने लगे. प्रत्येक व्यक्ति के दिल की धड़कने इस शंका से तेज़ हो गई थीं कि न जाने आगे क्या निकलता हैं. वैसे तो पूरी सुरंग में सीलन, चमगादडों की बीट इत्यादि की हलकी बदबू फैली हुई थी, किंतु यहाँ पहुंचकर यह बू और तेज़ हो गई थी. और जैसे जैसे वे लोग आगे बढ़ रहे थे, इस फैली हुई गंध में कुछ और गंध मिश्रित होकर अजीब प्रकार की गंध फैला रही थी.
"यार, यह गंध कैसी हैं?" रामसिंह ने नाक सिकोड़ते हुए कहा.
"सीलन वगैरह की बदबू हैं. यह कोई साफ़ सुथरा एयर कंडीशंड कमरा तो हैं नहीं कि हर ओर सुगंध फैली रहे. अगर खजाने को पाना हैं तो इतनी बदबू तो बर्दाश्त करनी ही पड़ेगी." प्रोफ़ेसर ने कहा.
अब सुरंग में कई मोड़ एक साथ मिले. और एक मोड़ से जैसे ही वे लोग घूमे, उन्होंने स्वयं को एक विशाल कमरे में पाया.
विचित्र गंध अब कुछ और तेज़ हो गई थी.
"यह कैसी भूलभुलैया हैं? यह पहाडियों को खोदकर कमरे किसने निकाले हैं?" रामसिंह ने आश्चर्य से कहा.
"वह जो भी सभ्यता रही होगी, कोई बहुत विकसित सभ्यता थी. और मेरे विचार से वह सभ्यता पहाड़ों के अन्दर निवास करती थी." प्रोफ़ेसर ने कहा.
"मेरा विचार हैं कि यहाँ खजाना ज़रूर मिलना चाहिए. क्योंकि एक विकसित सभ्यता का धन तो असीम होना चाहिए." शमशेर सिंह बोला.
"ठीक हैं. आओ ढूंढते हैं." प्रोफ़ेसर ने कहा.
फ़िर वे लोग एक एक कोने में अपनी नज़रें गड़ाने लगे.
उन्होंने जमे हुए एक एक पत्थर को हिलाने का प्रयत्न किया. अंत में चार पाँच पत्थरों को इस प्रकार देखने के बाद एक पत्थर वास्तव में हिलने लगा. इस पत्थर को शमशेर सिंह हिला रहा था.
"प्रोफ़ेसर, रामसिंह.." उसने पुकारा, "ज़रा इस पत्थर को अपने स्थान से हटाने में मेरी मदद करो."
फ़िर उन तीनों ने मिलकर ज़ोर लगाया और पत्थर अपने स्थान से हट गया. उसके पीछे वास्तव में एक छोटा सा दरवाजा था. वे लोग उसमें प्रविष्ट हो गए. यह एक और कमरा था. प्रोफ़ेसर ने टॉर्च जलाई और फ़िर वे लोग उन वस्तुओं को आश्चर्य से देखने लगे जो कमरे के बीचोंबीच रखी थीं.
ये लोहे के चार ताबूतनुमा बक्से थे जिनकी लम्बाई कम से कम दस फीट और चौडाई चार फीट थी. ऊँचाई भी अच्छी खासी थी.
"इतने खजाने में तो हम लोग पूरी दुनिया खरीद सकते हैं." रामसिंह ने कहा.
"मैं तो सबसे पहले ताजमहल खरीदूंगा. मुझे वह बहुत पसंद है." शमशेर सिंह ने अपनी भारी भरकम तोंद के साथ उछलने की कोशिश की.
"अब हमें देर न करते हुए इन बक्सों को खोलना चाहिए. पता तो चले कि इनमें हीरे भरे हैं या मोती."
फ़िर तीनों ने बक्सों को खोलने की तरकीबें करनी शुरू कर दीं. अजीब प्रकार के बक्से थे, जिनमें कोई कुंडा नहीं दिखाई दे रहा था. काफ़ी देर की कोशिशों के बाद भी तीनों उन्हें खोलने में नाकाम रहे और पसीना पोंछते हुए दूर खड़े हो गए.
"यार प्रोफ़ेसर, क्या हम लोगों को खजाने की झलक देखने को नहीं मिलेगी?" शमशेर सिंह ने मायूसी से पूछा.
"मैं तो कब से अपने डाउन सेल वाली टॉर्च लिए खड़ा हूँ कि कब बक्सा खुले और मैं अपनी टॉर्च की रौशनी में उसका दीदार करुँ." रामसिंह ने हाथ में पकड़ी टॉर्च झुलाते हुए कहा.
"अब तो मुझे भी गुस्सा आने लगा है. जी चाहता है कि पत्थर मार मार कर इन बक्सों का हुलिया बिगाड़ दूँ." कहते हुए प्रोफ़ेसर ने एक बड़ा पत्थर उठाया और निशाना लगाकर जोरों से एक बक्से के ऊपर फेंका. पत्थर बक्से से टकराकर वहीँ ज़मीन में गडे एक कीलनुमा पत्थर से टकरा गया.
दूसरे ही पल कीलनुमा पत्थर ज़मीन में धँसने लगा. फ़िर प्रोफ़ेसर वगैरा ने हैरत से उन बक्सों को देखना शुरू कर दिया जो आटोमैटिक ढंग से अपने आप खुलने लगे थे.
"शानदार. यानी यह पत्थर उन बक्सों को खोलने का स्विच था. " प्रोफ़ेसर ने प्रशंसात्मक भाव से उस कीलनुमा पत्थर को देखा.
"चलो रामसिंह. अब हम भगवान् का नाम लेकर अपने खजाने का दीदार करते है." शमशेर सिंह आगे बढ़ा और उसके पीछे पीछे दोनों दोस्त भी बक्से के करीब पहुँच गए. और बेताबी के साथ अन्दर मौजूद सामान के दीदार को झुक गए.
लेकिन वहां खजाने जैसी कोई चीज़ नहीं थी.
चारों बक्सों में चार आदमकद लाशें मौजूद थीं. जिनके चेहरे बर्फ की तरह सफ़ेद पड़ चुके थे. उनके शरीर पूरी तरह सही सलामत थे और उनपर गर्दन से पैर तक सफ़ेद लिबास मौजूद था.
"ल..लाश!" रामसिंह ने घबरा कर कहा.
"प..प्रोफ़ेसर, किसी ने इन्हें कत्ल करके यहाँ डाल दिया है." शमशेर सिंह कांपते हुए बोला, "यहाँ से जल्दी निकल चलो वरना पुलिस इनके कत्ल के इल्जाम में हमें ही गिरफ्तार कर लेगी."
"रुको बेवकूफों." प्रोफ़ेसर ने दोनों को भागने से रोका, "मेरा ख्याल हंड्रेड परसेंट सही निकला. मैंने तुम लोगों से कहा था कि ये पहाड़ी मिस्र के पिरामिड जैसी है. ये वाकई में पिरामिड निकला. और ये चारों इस पिरामिड की ममियां हैं."
"ओह!" दोनों ने गहरी साँस ली. और ताबूतों में रखी लाशों को देखने लगे जो टॉर्च की रौशनी में चमकती हुई कुछ अजीब सी लग रही थीं.
"कितना खूबसूरत मौका मिला है मुझे." प्रोफ़ेसर ने खुश होकर कहा, "अब मैं इन ममियों पर अपनी साइंटिफिक रिसर्च करूंगा. और यह साबित कर दूँगा कि ये ममियां मिस्र के बादशाहों की नहीं थीं बल्कि उनकी बेगमों के आशिकों की थीं. जिन्हें उन बादशाहों ने जिंदा ताबूत में गड़वा दिया था."
"और खजाने की तलाश का क्या होगा?" रामसिंह ने मरी हुई आवाज़ में पूछा.
"खजाने को कुछ देर के लिए चूल्हे भाड़ में झोंको और मेरी रिसर्च में मदद करो." प्रोफ़ेसर एक ताबूत पर झुककर पास से उसका निरीक्षण करने लगा. इसी बीच उसके शरीर के दबाव से अन्दर मैजूद कोई खटका दब गया. दूसरे ही पल चारों ताबूतों से ऐसी आवाजें आने लगीं मानो किसी ने वहां ए.सी. चालू कर दिया हो. साथ ही ताबूत की दीवारों से निकलने वाली रंग बिरंगी किरणों ने चारों लाशों को अपने घेरे में ले लिया. प्रोफ़ेसर झिझक कर सीधा हो गया. फ़िर उन लोगों ने हैरत से देखा कि किरणों के प्रभाव से चारों लाशों के चेहरे पर धीरे धीरे सुर्खी लौट रही थी. मालूम होता था जैसे वे लोग जिंदा हो रहे हों.
और फ़िर वाकई चारों ने एक साथ ऑंखें खोल दीं. एक अंगड़ाई ली और उठकर बैठ गए.
"भ..भूत!" शमशेर सिंह की घिघियाती आवाज़ निकली.
"म..मेरा ख्याल है कि हमें यहाँ से भाग निकलना चाहिए." इस हालत में भी प्रोफ़ेसर अपना ख्याल जताने से बाज़ नहीं आया था.
"ल..लेकिन भागने का रास्ता किधर है?" रामसिंह लगभग रो देने वाली आवाज़ में बोला.
"इन भूतों ने भागने का रास्ता भी गायब कर दिया." शमशेर सिंह के चेहरे की हवाइयां दूर से देखी जा सकती थीं.
जबकि हकीकत ये थी कि भागने का रास्ता उनके ठीक पीछे मौजूद था. घबराहट और दहशत ने उनके दिमाग को ऐसा जड़ कर दिया था कि वे पीछे घूमने की सोच भी नही पा रहे थे.
उधर ताबूतों में मौजूद चारों मनुष्यों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा. फ़िर उनमें से एक ने अपना मुंह खोला, "आह! आज पता नहीं कितने बरसों के बाद हम जागे हैं." पाटदार आवाज़ में वह व्यक्ति कोई अनजान भाषा बोल रहा था.
"हाँ सियाकरण. और इसके लिए हमें इन मनुष्यों का कृतज्ञ होना चाहिए." दूसरे व्यक्ति ने तीनों दोस्तों की तरफ़ देखा, जो अपनी जगह पर खड़े वाइब्रेटर पर लगे मोबाइल की तरह काँप रहे थे.
"तुम ठीक कहते हो मारभट, चलो हम उनके पास चलकर उन्हें धन्यवाद देते हैं." सियाकरण ने कहा और चारों अपने अपने ताबूतों से निकलकर बाहर आ गए. चारों का कद किसी भी प्रकार सात फिट से कम नहीं था.
"प...प्रोफ़ेसर, वो लोग हमारी तरफ़ आ रहे हैं." रामसिंह ने शमशेर सिंह को प्रोफ़ेसर समझकर उसका बाजू थाम लिया. जबकि शमशेर सिंह ऑंखें बंद करके जल्दी जल्दी आरती को हनुमान चालीसा की तरह पढने लगा. हनुमान चालीसा तो इस समय लाख कोशिश करने के बाद भी याद नहीं आ रही थी.
चारों उनके सामने पहुंचकर रुक गए.
"हम तुम्हारा शुक्रिया अदा करते हैं कि तुमने बरसों बाद हमें इन ताबूतों से बाहर निकाला." वह व्यक्ति बोला जिसे दूसरों ने सियाकरण कह कर संबोधित किया था.
"प...प्रोफ़ेसर, यह क्या कह रहा है?" रामसिंह ने पूछा.
"शायद यह हमें खाने की बात कर रहा है." प्रोफ़ेसर की बात सुनकर दोनों की हालत और ख़राब हो गई.
उसी समय तीन ताबूतवाले आगे बढे और तीनों को गले से लगा लिया. जबकि चौथा व्यक्ति बारी बारी से तीनों के सर सहलाने लगा.
"य..ये लोग क्या कर रहे हैं?" बड़ी मुश्किल से शमशेर सिंह के मुंह से आवाज़ निकली.
"ये लोग हमें पकाने से पहले हमारी हड्डियों का कचूमर बनाना चाहते हैं." प्रोफ़ेसर कराहकर बोला. ताबूतवाले ने उसे कुछ ज़्यादा ज़ोर से भींच लिया था.
फ़िर वे लोग उनके हाथ चूमने लगे.
"मेरा ख्याल है ये लोग हमसे दोस्ती करना चाहते हैं." प्रोफ़ेसर ने कहा.
"भ..भूतों की न दोस्ती अच्छी होती है न दुश्मनी. प्रोफ़ेसर जल्दी से यहाँ से भाग चलो." रामसिंह ने प्रोफ़ेसर का हाथ पकड़कर खींचा.
लेकिन चारों ने उन्हें ऐसा जकड़ रखा था कि भागने का सवाल ही नहीं पैदा होता था.
फ़िर काफी मुश्किलों के बाद प्रोफ़ेसर वगैरह की समझ में आया की चारों ताबूतवासी इनके दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त हैं. अब सात लोगों का ये काफिला उस पहाडीनुमा पिरामिड से बाहर आकर जंगल में धमाचौकडी मचा रहा था. धीरे धीरे प्रोफ़ेसर वगैरह को उन चारों के नाम भी मालूम हो गए. सबसे ज़्यादा तेज़ तर्रार लीडर टाइप का सियाकरण था. उसके साथ सहयोगी रूप में लगा रहने वाला मारभट था. बाकी दोनों जो थोड़ा कम सक्रिय दिखाई देते थे क्रमशः चोटीराज और चिन्तिलाल थे. अब तीनों का डर उन ताबूतवासियों के प्रति काफी कम हो गया था. ख़ास तौर से प्रोफ़ेसर तो पूरी तरह निश्चिंत हो गया था, और उनकी भाषा समझने की कोशिश का रहा था. जबकि रामसिंह और शमशेर सिंह अब भी उन ताबूतवासियों से दूर दूर और कटे कटे रहते थे.
यह ताबूतवासी कौन थे और कहाँ से आये थे, यह अभी भी एक रहस्य था.
..................
और इस रहस्य से परदा उठा एक महीने बाद. जब प्रोफ़ेसर और सियाकरण लगभग पूरी तरह एक दूसरे की भाषा समझने लगे थे. उस वक्त सियाकरण ने जो बताया वह प्रोफ़ेसर और उनके दोस्तों को भौंचक्का करने के लिए काफी था.
"आज से हजारों वर्ष पहले यहाँ एक बहुत बड़ी सभ्यता आबाद थी. विज्ञान की दृष्टि से भी बहुत उन्नत थी. सैंकडों वैज्ञानिक उस समय अनेक विकास कार्यों पर जुटे हुए थे. उनमें महर्षि प्रयोगाचार्य का नाम सबसे ऊपर था."
"एक मिनट!" प्रोफ़ेसर ने उसे टोका, "जब आपके प्रयोगाचार्य वैज्ञानिक थे तो वह ऋषि कहाँ से हो गए?"
"हमारे समय में वैज्ञानिकों को ऋषि कहा जाता था. और उच्च कोटि के वैज्ञानिक महर्षि कहलाते थे. और प्रयोगाचार्य जी तो महानतम ऋषि थे. जिनका आदर रजा भी करता था. हम चारों महर्षि के शिष्यों में शामिल थे. हमारे अलावा उनके सैंकडों शिष्य और थे. एक दिन प्रयोगाचार्य जी ने हम चारों को अलग बुलाया, शायद वह कोई खास बात करना चाहते थे.
"क्या बात है गुरूजी? आपने हम लोगों को क्यों बुलाया है?" मैंने पूछा.
"आज मैंने एक बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त की है." महर्षि के चेहरे के रोम रोम से इस समय खुशी फूट रही थी. सदेव विद्यमान रहने वाली गंभीरता उनके मस्तक से गायब थी.
"क्या कोई नया सूत्र हाथ लगा है?" मारभट ने पूछा.
"मैंने ऐसा आविष्कार किया है कि हजारों साल बाद भी लोग मुझे याद रखेंगे. मैंने मनुष्यों को हजारों साल जीवित रहने का सूत्र खोज निकाला है." महान वैज्ञानिक महर्षि प्रयोगाचार्य जी ने रहस्योदघाटन किया.
"क्या? यह कैसे सम्भव है?" मैंने आश्चर्य से कहा.
"मैं विस्तार से समझाता हूँ." प्रयोगाचार्य जी ने कहना शुरू किया, "मानव को मृत्यु प्राप्ति कैसे होती है? पहले मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो."
"गुरूजी, आप ही ने हमें बताया है कि मानव शरीर छोटी छोटी कोशिकाओं से मिलकर बना होता है जो लगातार कार्यरत रहती हैं. कार्य करते करते इनकी क्षमता धीरे धीरे कम होती जाती है. और अंततः ये नष्ट हो जाती हैं. इनका स्थान नई कोशिकाएं लेती हैं और उनके साथ भी यही प्रक्रिया होती है. धीरे धीरे नष्ट होने वाली कोशिकाओं की संख्या बढ़ने लगती है और नई कोशिकाओं की उत्पत्ति कम होने लगती है. यही बुढापे की शुरुआत होती है जिसका अंत मनुष्य की मृत्यु पर होता है." मैंने बताया.
"बिल्कुल ठीक. इसी पर मैंने विचार किया कि यदि मानव शरीर में होने वाली समस्त क्रियाओं को रोक दिया जाए तो उसकी कोशिकाओं की क्षमता सदेव बनी रहेगी और वे कभी नष्ट न होंगी."
"किंतु मानव शरीर की क्रियाएँ रोक देने पर वह जीवित कहाँ रहेगा?" मारभट ने पूछा.
"क्रियाएँ रोक देने पर वह मृत ज़रूर होगा, किंतु उसकी यह मृत्यु अस्थाई होगी. क्योंकि उसकी कोशिकाएं पहले की तरह शक्तिशाली बनी रहेंगी. मेरी एक विशेष प्रक्रिया उन कोशिकाओं को दोबारा सक्रिय कर देगी. मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें दिखाता हूँ कि यह सब कैसे होगा."
'महर्षि प्रयोगाचार्य ने हम चारों को साथ लिया और एक यटिकम पर बैठकर जंगल की तरफ़ बढ़ने लगे.' सियाकरण हजारों साल पुरानी दास्तान सुना रहा था जिसे प्रोफ़ेसर मुंह खोलकर ऑंखें फाड़े हुए सुन रहा था.
"एक मिनट!" प्रोफ़ेसर ने टोका, "यह यटिकम क्या बला है? "
"यटिकम एक विशेष डिब्बानुमा रचना थी जिसके नीचे गोल गोल चक्के लगे होते थे. इसे दो यल मिलकर खींचते थे. उसपर बैठकर हम एक जगह से दूसरी जगह प्रस्थान करते थे."
"समझा!" प्रोफ़ेसर ने गहरी साँस लेकर सर हिलाया, "हमारी भाषा में तुम्हारे यटिकम को बैलगाडी कहते है. और यल को बैल कहते हैं."
"हो सकता है." सियाकरण ने आगे कहना शुरू किया, "महर्षि प्रयोगाचार्य जी हम चारों को लेकर जंगल पहुंचे और एक पहाडी में बनी सुरंग में प्रवेश कर गए. हमने देखा, गुरूजी ने पहाडी के अन्दर बहुत बड़ी प्रयोगशाला बना रखी थी, जिसमें बहुत सारे कमरे थे. यह सभी कमरे एक दूसरे से सुरंगों द्वारा जुड़े थे. वो हमें लेकर एक कमरे में पहुंचे जहाँ लोहे के चार दैत्याकार संदूक रखे थे."
"ये संदूक, जो तुम लोग देख रहे हो, यही मेरा आविष्कार है." कहते हुए महर्षि ने दूर ज़मीन में गडा एक कीलनुमा पत्थर दबाया और चारों संदूक अपने आप खुलते चले गए.
महर्षि ने आगे बताना शुरू किया, "इन संदूकों में जब मानव को लिटाकर बंद किया जाएगा तो इनमें उपस्थित यंत्र एक विशेष प्रक्रिया द्वारा उस मानव को ताप प्रशीतन की अवस्था में पहुँचा देंगे, और वह अत्यधिक निम्न ताप पर शीत निद्रा की अवस्था में पहुँच जाएगा. इस अवस्था में उसके शरीर की समस्त क्रियायें रूक जाएँगी. उसका मस्तिष्क असंवेदनशील हो जाएगा और वहीँ से उसकी आयु स्थिर हो जायेगी. जब तक वह संदूक में बंद रहेगा, वाहय दुनिया से और स्वयं उसके भौतिक शरीर से उसका संपर्क पूरी तरह टूट जाएगा."
"और उसकी यह अवस्था कब तक रहेगी गुरूजी?" मारभट ने पूछा.
"जब तक कोई बहरी मनुष्य आकर उन संदूकों को खोलता नहीं. इसके लिए वह यह आलम्ब दबाएगा." महर्षि ने कीलनुमा पत्थर की ओर संकेत किया, "जब उस मनुष्य के शरीर का ताप किसी संदूक के अन्दर पहुंचेगा तो संदूक में उपस्थित ताप प्रशीतन की अवस्था समाप्त करने का यंत्र क्रियाशील हो जाएगा. फ़िर चारों संदूकों के यंत्र एक विशेष प्रकार की ताप किरणें छोड़कर उन मानवों को पुनर्जीवित कर देंगे."
हम चारों आश्चर्य के साथ उनके इस अदभुत आविष्कार को देख रहे थे.
"अब तुम लोग सोच रहे होगे कि वह लोग कौन हैं जिन्हें इन संदूकों में लिटाया जाएगा. जो कई बरसों या शायद सैंकडों बरसों तक अस्थाई मृत्यु की अवस्था में इस कमरे में पड़े रहेंगे.......इन संदूकों की संख्या से शायद तुम कुछ अनुमान लगा सकते हो." महर्षि ने हमारी आँखों में झाँका.
संदूकों की संख्या चार थी और हम भी कुल चार थे. मामले को समझते ही हमारे शरीरों में एक सिहरन सी दौड़ गई. महर्षि का इरादा स्पष्ट था.
"तुम चारों मेरे सबसे होनहार शिष्यों में से हो. इसलिए यह अनुभव तुम्हारे ही शरीरों को प्राप्त होगा. यह अनुभव बहुत बड़ा जोखिम भी है. हो सकता है सैंकडों वर्षों में लोग यहाँ का रास्ता भूल जायें. यहाँ ये चारों संदूक हमेशा के लिए दुनिया की दृष्टि से दूर हो जायें. इसके बाद भी मुझे आशा है कि तुम लोग इसके लिए तैयार हो जाओगे." महर्षि ने आशा भरी दृष्टि से हमारी ओर देखा.
गुरूजी की आज्ञा हमारे लिए ईश्वर का आदेश थी. हम तैयार हो गए. जिस दिन हम जीवित ही अपने ताबूतों में जा रहे थे, स्वयं महाराजा हमें विदाई देने के लिए वहां तक आये. और उसके बाद हम एक लम्बी निद्रा में लीन हो गए.
और जब दोबारा हमारी आंख खुली तो तुम लोग हमारे सामने थे. और शायद हजारों वर्ष बीत चुके हैं अबतक." सियाकरण ने अपनी दास्तान ख़त्म करके जब प्रोफ़ेसर की तरफ़ देखा तो उसे सकते की हालत में पाया. ठहोका देकर जब उसे सामान्य हालत में लाया गया तो उसने सिर्फ़ इतना कहा, "मुझे मालूम न था कि पुराने समय में भी इतने महान वैज्ञानिक होते थे. हम लोग बेकार में आजकल के वैज्ञानिकों की बदाई किया करते हैं. मैं तो योगाचार्य जी के सामने धूल का फूल भी नहीं हूँ."
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