खजाने-की-तलाश (Khazane ki Talash),,-02
"नक्शा
बाद में देखना.
पहले
यह बताओ कि मेरा क्या होगा.
क्या
मैं ऐसे ही कीचड़ में लथपथ
रहूँ?
मेरा
सामान भी कीचड़ में सन गया
है."
रामसिंह
ने कहा.
"तुम
अपना मुंह तो तालाब के पानी
से धो लो.
और
कपड़े ऐसे ही पहने रहो.
जब
सूख जाएँ तो सूखी मिटटी झाड़
लेना."
कहते
हुए प्रोफ़ेसर ने नक्शा निकाला.
कुछ
देर टॉर्च के प्रकाश में उसे
देखता रहा फिर बोला,
"नक्शे
में यह तालाब मौजूद है.
यानि
हम सही रास्ते पर हैं.
अब
नक्शे के अनुसार हमें दाएँ
ओर मुड जाना चाहिए."
फिर वे दाएँ ओर मुड गए. प्रोफ़ेसर ने फिर टॉर्च बुझा दी थी. ताकि बैट्री कम से कम खर्च हो. अभी उस टॉर्च से बहुत काम लेना था. हालाँकि बाकि दोनों इससे सहमत नही थे, लेकिन जब प्रोफ़ेसर ने आगे रहना स्वीकार कर लिया तो वे भी चुप हो गए. और इस तरह अब तीनों की टोली में सबसे आगे प्रोफ़ेसर था.
अचानक प्रोफ़ेसर ने शमशेर सिंह के हाथ में कोई चमकती हुई वस्तु देखी, "यह क्या है?" कहते हुए प्रोफ़ेसर ने शमशेर सिंह के हाथ पर टॉर्च का प्रकाश डाला. यह एक छोटा सा खंजर था.
"यह मैं ने जंगली जानवरों से बचाव के लिए पकड़ लिया है. अगर कोई जानवर अचानक हमला कर देगा तो उसका पेट इस तरह से चीर कर रख दूँगा." कहते हुए उसने खंजर हवा में लहराया. प्रोफ़ेसर ने जल्दी से अपना सर पीछे खींच लिया वरना खंजर की नोक ने उसकी नाक की नोक उड़ा दी थी.
"क्या तुम इसका इस्तेमाल कर पाओगे? क्योंकि तुम्हारा हाथ तो कांप रहा है. कहीं हडबडाहट में अपने ही न मार लेना." रामसिंह ने कहा.
"चुप रहो. मैं तुम्हारी तरह अनाड़ी नही हूँ." शमशेर सिंह ने क्रोधित होकर कहा.
फिर प्रोफ़ेसर ने दोनों को शांत किया. और वे आगे बढ़ने लगे. अब तक सुबह का उजाला फैलने लगा था. और चिड़ियों के चहचहाने की आवाजें सुनाई पड़ने लगी थीं. इस समय वे ऐसे रास्ते पर चल रहे थे जिसके एक किनारे पर कोई पहाड़ी नदी बह रही थी और दूसरे किनारे पर छोटी मोटी पहाडियों की एक श्रृंखला थी. अचानक प्रोफ़ेसर चलते चलते रूक गया.
"क्या हुआ प्रोफ़ेसर?" शमशेर सिंह ने पूछा.
"मेरा ख्याल है, यह जगह आराम करने के लिए अच्छी है. हम लोग कुछ देर ठहर कर इस नदी में स्नान करेंगे, फिर आगे बढ़ेंगे."
फिर तीनों ने अपने अपने सामान नीचे रखे और नदी की और बढ़ गए. इस समय नदी के ठंडे पानी ने तीनों को एक नई स्फूर्ति दी और उनकी अब तक की यात्रा की साड़ी थकान उतर गई. जब वे लोग पानी से बाहर निकले तो पूरी तरह ताज़ादम हो रहे थे. उन्होंने अपने सूटकेस से कुछ सैंडविच निकले और नाश्ता करने लगे. रामसिंह ने झोले से स्टोव निकला और उसपर काफी बनाने लगा.
कुछ देर बाद वे लोग गरमागरम काफी पी रहे थे.
"इस वक्त रामसिंह के स्टोव ने काफी काम किया है. हम लोग बेकार में उसके स्टोव लाने की बुराई कर रहे थे." शमशेर सिंह ने कहा.
"मुझसे कभी कोई काम ग़लत नही होता." रामसिंह ने अकड़ कर कहा.
"तुमने सिर्फ़ एक काम ग़लत किया है कि इस दुनिया में पैदा हो गए हो." शमशेर सिंह ने टुकड़ा लगाया.
"और दूसरा ग़लत काम मैंने यह किया है कि तुम्हारे जैसे गधे को अपना दोस्त बना लिया है." रामसिंह ने दांत पीसते हुए कहा.
"ठीक है. अब तुम लोग आपस में लड़ते रहो. खजाने की खोज तो हो चुकी." प्रोफ़ेसर ने दोनों को घूरते हुए कहा.
"सोरी प्रोफ़ेसर, बात यह है कि हम लोग कसरत कर रहे थे."
"यह कैसी कसरत? मैंने तो आज तक ऐसी कसरत नही देखी जिसमें लोग झगड़ा करते हैं." प्रोफ़ेसर ने आश्चर्य से कहा.
"यह ऐसी ही कसरत है. इसमें दिमाग मज़बूत होता है और अगर हाथ पैर चलाने की नौबत आ जाए तो हाथ पैरों की भी कसरत हो जाती है."
"अच्छा अच्छा ठीक है. अब अपने अपने सामान उठाओ. हम लोगों ने बहुत देर आराम कर लिया." प्रोफ़ेसर ने उठते हुए कहा.तीनों ने फिर अपनी यात्रा शुरू की.
अचानक प्रोफ़ेसर देव ने रूककर किसी वस्तु को गौर से देखना शुरू कर दिया."क्या देख रहे हो प्रोफ़ेसर?" शमशेर सिंह ने प्रोफ़ेसर की दृष्टि की दिशा में अपनी दृष्टि दौड़ाई. यह कोई घास थी.
"मैं उस घास को देख रहा हूँ."
"क्यों? उस घास में ऐसी क्या बात है?" रामसिंह ने हैरत से पूछा.
"अगर मेरा विचार सही है तो यह एक महत्वपूर्ण बूटी है जिसके बारे में मैंने किताबों में काफी कुछ पढ़ा है."
"फिर तो कबाड़ा हो गया. क्योंकि अब तुम यहीं अपनी रिसर्च शुरू कर दोगे और खजाना हमारी याद में पड़ा पड़ा सूख कर कांटा हो जाएगा." रामसिंह ने अपने सर पर हाथ मारते हुए कहा.
"अभी जब मैं इस बूटी का नाम बताऊंगा तो तुम लोग खजाने के बाप को भी भूल जाओगे. यह संजीवनी बूटी है जो मुर्दों में भी जान डाल देती है." प्रोफ़ेसर ने रहस्योदघाटन किया.
"क्या?" दोनों उछल पड़े, "तुम्हें कैसे पता?"
"मैंने इसकी पहचान किताबों में पढ़ी है. ऊपर का भाग सफ़ेद होता है, बीच का हरा और नीचे का कत्थई. यह बिल्कुल वैसी ही घास है."
"हाँ. है तो वैसी. फिर तो हम लोगों ने एक नई खोज कर डाली. प्रोफ़ेसर, इसके कुछ नमूने तोड़कर रख लो. घर पर इसका अच्छी तरह टेस्ट कर लेना." शमशेर सिंह ने कहा.
"मैं यहीं इसका टेस्ट किए लेता हूँ." कहते हुए प्रोफ़ेसर ने एक मुठ्ठी घास तोड़कर अपने मुंह में रख ली. "अभी थोड़ी देर में इसका असर पता लग जाएगा. तुम लोग थैलों में इसे भर लो."
वे लोग थैलों में घास भरने लगे. कुछ देर में दो थैले घास से पूरी तरह भर गए. अब उन्होंने आगे का सफर शुरू किया.
कुछ दूर जाने के बाद एकाएक प्रोफ़ेसर ने अपना पेट पकड़ लिया और कराहने लगा.
"तुम्हें क्या हुआ?" शमशेर सिंह ने पूछा.प्रोफ़ेसर ने कुछ कहने की बजाए झाड़ियों की तरफ़ छलांग लगा दी. फिर झाड़ियों से इस तरह की आवाजें आने लगीं मानो वह उल्टियाँ कर रहा हो. और साथ ही 'धड़ाक' की दो तीन आवाजें भी सुनाई दीं.
"इसे क्या हुआ? अभी तो अच्छा खासा था." रामसिंह ने हैरत से कहा.
"लगता है इसने घास खाकर अपना पेट ख़राब कर लिया है." शमशेर सिंह ने अनुमान व्यक्त किया.फिर कुछ देर बाद प्रोफ़ेसर की ज़ोर ज़ोर से कराहने की आवाजें आने लगीं.
"क्या हम लोग तुम्हारी मदद को आयें?" रामसिंह ने चीख कर पूछा.
"आ जाओ. मुझसे तो अब उठा भी नही जा रहा है." प्रोफ़ेसर की कमज़ोर आवाज़ सुनाई दी. वे लोग झाड़ियों के पास पहुंचे और वहां पहुंचकर उन्हें अपने मुंह पर रूमाल रख लेना पड़ा. क्योंकि वहां उल्टियों के कारण अच्छी खासी बदबू फैली थी और प्रोफ़ेसर औंधे मुंह पड़ा कराह रहा था. उसका पैंट भी पीछे से भीगा था.
"मैंने मना किया था की यहाँ अपनी रिसर्च से बाज़ आ जाओ, लेकिन तुम नही माने. अब थोडी हिम्मत करो ताकि हम लोग तुम्हें यहाँ से ले चलें." रामसिंह ने कहा. फिर दोनों ने मिलकर उसे उठाया और झाड़ियों से बाहर ले आए. उसे एक पेड़ के सहारे लिटा दिया गया. फिर उसे पानी पिलाया गया.
"खजाने की खोज तो पाँच छह घंटों के लिए कैंसिल हुई. क्योंकि जब तक प्रोफ़ेसर ठीक नही हो जाता हम आगे नही बढ़ सकते." शमशेर सिंह ने चिंताजनक लहजे में कहा.
"हाँ. इसे तो अपनी मूर्खता से ही छुट्टी नही मिलती." रामसिंह ने प्रोफ़ेसर को घूरा.
"अब कुछ भी कह लो. अब तो मूर्खता हो ही गई. हाय .... अब तक पेट में मरोड़ हो रही है. पता नही वह कैसी घास थी. ये कमबख्त किताबों में भी झूटी बातें लिखी रहती हैं." प्रोफ़ेसर ने कराहते हुए कहा.
फिर तीनों ने वहीँ डेरा जमा लिया. चूंकि वे रात भर के जागे हुए थे, अतः शमशेर सिंह और रामसिंह की आँख लग गई. जबकि प्रोफ़ेसर काफ़ी देर परेशान रहा.शाम तक प्रोफ़ेसर की हालत काफी सुधर चुकी थी, अतः उनहोंने आगे बढ़ने का निश्चय किया. प्रोफ़ेसर ने अपने कपड़े बदल लिए थे.
धीरे धीरे अँधेरा छाने लगा था., और जंगली जानवरों की आवाजें आने लगी थीं. इन आवाजों को सुनकर तीनों की हालत ख़राब हो रही थी, किंतु ज़ाहिर यही कर रहे थे कि उन्हें इसकी कोई परवाह नही है. सबसे ख़राब हालत शमशेर सिंह की थी. उसका दिल इस समय दूनी रफ़्तार से धड़क रहा था और हाथ में पकड़ा खंजर लगभग चालीस दोलन प्रति सेकंड की रफ़्तार से काँप रहा था. इसी कम्पन में उसका खंजर एक बार रामसिंह के हाथ से छू गया.
"अरे बाप रे, ये किसने मेरे ऊपर दांत गड़ा दिए." रामसिंह ने घबरा कर प्रोफ़ेसर की दी हुई टॉर्च जलाई, फ़िर खंजर देखकर उसका पारा फ़िर चढ़ गया, "अबे यह खंजर जहाँ से निकाला है वहीँ रख दे वरना जंगली जानवरों का तो कुछ नही होगा, हम लोगों की जान ज़रूर चली जाएगी."
मजबूर होकर शमशेर सिंह ने दोबारा खंजर अपनी जेब में रख लिया. उसने तेज़ तेज़ चलना शुरू कर दिया. क्योंकि उसका मूड ख़राब हो गया था.
"अरे इतनी तेज़ क्यों चल रहे हो. मैं कमजोरी के कारण चल नही पा रहा हूँ." देवीसिंह ने कराहते हुए कहा.
"तो तुम आराम से आओ. मैं तो अब खजाने के पास ही रुकूंगा." शमशेर सिंह ने पीछे मुडे बिना कहा.
धीरे धीरे शमशेर सिंह का मूड ठीक होता गया. वह सोचने लगा कि रामसिंह ने ठीक ही तो कहा था कि खंजर रख ले. उस बेचारे को तो पता ही नही कि मैं कितना बहादुर हूँ. खैर वक्त आने पर मालूम हो जाएगा. उसे किसी का हाथ अपने कंधे पर महसूस हुआ.
"ओह, तो रामसिंह मुझे मनाने आया है."उसने कहा, "अरे यार, मैं तुमसे ज़रा भी नाराज़ नही हूँ. मुझे पता है कि तुम मुझे नही जानते कि मैं कितना बहादुर हूँ. मैं इसीलिए तेज़ चल रहा हूँ कि कोई जंगली जानवर पहले मेरे ऊपर हमला करे और मैं उसे परलोक पहुंचाकर अपनी बहादुरी सिद्ध कर दूँ."
अब उसे रामसिंह का हाथ कंधे की बजाए सर पर महसूस होने लगा था."अरे यार क्या कर रहे हो. मुझे गुदगुदी हो रही है. अच्छा तो चुपचाप अपना काम किया करोगे, कुछ बोलोगे नहीं." शमशेर सिंह ने एक झटके से अपना सर पीछे किया और उसकी सिट्टी पिट्टी गुम हो गई. क्योंकि पीछे रामसिंह की बजाए एक खूंखार गोरिल्ला खड़ा था.
"अरे बाप रे!" शमशेर सिंह चीखा और आगे की तरफ़ दौड़ लगा दी. गोरिल्ले ने पीछा किया, किंतु उसी समय शमशेर सिंह को एक पेड़ ऐसा दिख गया जिस पर वह आसानी से चढ़ सकता था. फिर वह बिना देर किए उस पेड़ पर चढ़ गया. गोरिल्ले ने पेड़ पर चढ़ने की कोशिश की किंतु फिसल कर गिर गया और फिर खड़ा होकर पेड़ को हिलाने लगा.
"द..देखो, अगर मैं नीचे आ गया तो बहुत बुरा हाल करूंगा." शमशेर सिंह ने कांपते हुए कहा. फिर उसे अपने खंजर की याद आई और उसे जेब से निकाल कर गोरिल्ले को दिखाने लगा, "इसे पहचानते हो, यह खंजर है. अगर तुम नहीं भागे तो तुम्हारा पेट चीर दूँगा." उसने पेड़ पर बैठे बैठे कहा.
गोरिल्ला भला शमशेर सिंह की भाषा क्या समझता. वह क्रोधित दृष्टि से उसकी ओर देख रहा था और शायद आश्चर्यचकित भी था.क्योंकि इस जंगल में उसने पहली बार मनुष्य देखे थे.
उधर रामसिंह और देवीसिंह काफ़ी पीछे रह गए थे. रामसिंह देवीसिंह से कह रहा था, "प्रोफ़ेसर यह शमशेर सिंह भी अजीब है. कहाँ तो वह हम लोगों के पीछे चल रहा था और कहाँ इतनी दूर निकल गया कि हम लोग उसे देख भी नही पा रहे हैं."
"मूडी आदमी है. अभी जब जंगली जानवरों की तरफ़ ध्यान जाएगा तो ख़ुद ही पलट आयेगा."
तभी उन्हें शमशेर सिंह की चीख सुनाई दी.
"ओह, लगता है वह खतरे में है. आओ रामसिंह." प्रोफ़ेसर ने कहा और वे आवाज़ की दिशा में दौड़ पड़े. फ़िर जब उन्हें शमशेर सिंह दिखाई पड़ा तो वह इस दशा में था कि गोरिल्ला उसकी टांग पकड़े खींच रहा था और शमशेर सिंह दोनों हाथों से पेड़ की एक डाल पकड़े चीख रहा था. खंजर उसके हाथ से छूट कर नीचे गिरा पड़ा था.
प्रोफ़ेसर ने अपनी राइफल निकाल कर हवा में दो फायर किए. गोरिल्ला चौंक कर उनकी और देखने लगा. फ़िर उसने एक साथ तीन मनुष्यों से मुकाबला करना उचित नही समझा और झाड़ियों की तरफ़ भाग गया.
"प्रोफ़ेसर, वह भाग रहा है. गोली चलाओ वरना यदि वह जिंदा रहा तो तो फिर हमें परेशान करेगा." रामसिंह ने कहा.
"गोली कैसे चलाऊं. यह तो नकली राइफल है और केवल पटाखे की आवाज़ करती है. इससे तो एक चिडिया भी नही मारी जा सकती." प्रोफ़ेसर ने अपनी विवशता प्रकट की.
"तो इसको लाने की क्या ज़रूरत थी. असली राइफल क्यों नही लाये?" रामसिंह ने झल्लाकर कहा.
"उसका लाइसेंस कहाँ मिलता. और फ़िर यह भी तो काम आ गई. वरना गोरिल्ला शमशेर सिंह का काम कर डालता." प्रोफ़ेसर ने कहा.
"ठीक है प्रोफ़ेसर. वास्तव में तुम बहुत अक्लमंद हो." रामसिंह ने कहा. फिर उनहोंने पेड़ की तरफ़ ध्यान दिया जहाँ शमशेर सिंह डाल से चिपटा हुआ आँखें बंद किए थर थर काँप रहा था.
"शमशेर सिंह, अब नीचे उतर आओ. हम लोग आ गए हैं. अब डरने की कोई बात नहीं." प्रोफ़ेसर ने उसे पुकारा.
"क..क्या वह गोरिल्ला भाग गया?" शमशेर सिंह ने आँखें खोलते हुए पूछा.
"हाँ. अब ऊपर से उतर आ डरपोक कहीं का. तू जिससे डर गया था वह तो ख़ुद इतना डरपोक निकला कि हम लोगों की शक्ल देखकर भाग गया." रामसिंह ने कहा.
"वह तुम लोगों की शक्ल देखकर नही भागा था बल्कि राइफल देखकर भागा था. इसलिए ज़्यादा अपनी बहादुरी मत दर्शाओ." शमशेर सिंह ने उतरते हुए कहा.
"अब तुम हमारे साथ ही रहना. वरना फिर किसी खतरे का सामना करोगे." प्रोफ़ेसर ने कहा.
वे लोग उसके बाद चुपचाप आगे बढ़ते रहे. कुछ दूर जाने के बाद रामसिंह ने कहा, "प्रोफ़ेसर, क्या हम सही रास्ते पर जा रहे हैं?"
"अभी तक तो मेरे ख्याल में सही जा रहे हैं. फिर भी मैं नक्शा देख लेता हूँ." कहते हुए प्रोफ़ेसर वहीँ बैठ गया और जेब से किताब निकालकर नक्शा देखना शुरू कर दिया, "हूँ. अभी तक तो ठीक ही है. लेकिन अब हमें दाएँ ओर मुड़ना पड़ेगा."
उसके बाद प्रोफ़ेसर ने फिर नक्शा जेब में रख लिया और वे लोग दाएँ ओर मुड़कर आगे बढ़ने लगे.कुछ दूर चलने के बाद एकदम से जंगल समाप्त हो गया और सामने पहाडियाँ दिखाई देने लगीं. पहाड़ियों से पहले एक बड़ा सा मैदान था.
"यह आगे तो रास्ता ही बंद है. तुमसे नक्शा देखने में कोई भूल तो नही हो गई?" शमशेर सिंह ने पूछा.
"नक्शा तो मैंने ठीक देखा था. फिर भी एक बार और देख लेता हूँ." प्रोफ़ेसर ने दोबारा जेब से नक्शा निकाला और देखने लगा.
नक्शा देखने के बाद प्रोफ़ेसर बोला, "नक्शे के हिसाब से तो रास्ता इन पहाड़ियों में होना चाहिए.
"फिर उन्होंने काफ़ी देर पहाडियों में कोई रास्ता, कोई दरार इत्यादि ढूँढने की कोशिश की, किंतु कहीं कोई रास्ता नही मिला.
"मेरा ख्याल है कि यह स्थान आराम करने के लिए काफी अच्छा है. इस समय आराम किया जाए, सुबह दिन की रौशनी में रास्ता ढूँढा जाएगा."सभी प्रोफ़ेसर की बात से सहमत हो गए और आराम करने के लिए वहीँ लेट गए. जल्द ही सबको नींद ने आ घेरा.
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अगले दिन सुबह उठकर वे लोग फिर पहाड़ियों के पास पहुंचे और ध्यान से उनका निरीक्षण करना शुरू कर दिया, कि शायद कहीं से कोई दर्रा इत्यादि दिख जाए जो उन्हें पहाड़ियों के दूसरी ओर पहुँचा दे. किंतु लगभग दो घंटे की माथापच्ची के बाद उन्हें दर्रा तो क्या दरार भी न दिखी.
"मेरा ख्याल है कि हमें पहाड़ियों पर चढ़कर इन्हें पार करना चाहिए." प्रोफ़ेसर ने कहा.
"लेकिन यह पहाडियाँ तो एकदम सीधी हैं. इनके ऊपर कैसे चढा जाए?" रामसिंह ने विवशता के साथ कहा.
"यदि अक्ल हो तो हर काम हो सकता है. वह पेडों कि लताएँ देख रहे हो," प्रोफ़ेसर ने पेडों की ओर संकेत किया, "उसे बट कर हम लोग रस्सी की सीढ़ी बनाते हैं फिर उसके द्वारा इन पहाड़ियों पर चढा जाएगा."
"गुड आईडिया प्रोफ़ेसर. हमें इस कार्य में देर नही करनी चाहिए." शमशेर सिंह ने कहा. फिर वे लोग पेडों की तरफ़ चल पड़े. शमशेर सिंह ने कुल्हाड़ी उठाकर लताओं को काटना शुरू कर दिया और बाकी दोनों उसे बटकर रस्सी बनाने लगे. लगभग तीन घंटे के परिश्रम के बाद उन्होंने काफ़ी लम्बी रस्सी तैयार कर ली थी. प्रोफ़ेसर ने उसके ऊपर एक हुक लगा दिया.
"अब हम लोग पहाडी पर चढ़ सकते हैं." प्रोफ़ेसर ने कहा.
"लेकिन इस रस्सी को पहाडी के ऊपर कैसे फंसाएंगे?" रामसिंह ने पूछा.
"इसकी चिंता मत करो. मेरे पास इसका भी इलाज मौजूद है." कहते हुए प्रोफ़ेसर ने अपना सूटकेस खोलकर एक पटाखे वाला रॉकेट निकाला और कहा, "यह रॉकेट इस हुक को लेकर पहाड़ियों पर जाएगा. यह है तो छोटा, किंतु बहुत शक्तिशाली है. और इसको मैंने ख़ुद बनाया है."
प्रोफ़ेसर ने हुक को रॉकेट के साथ बाँध दिया और रॉकेट की दिशा पहाड़ियों की ओर करके उसके पलीते में आग लगा दी. रॉकेट सर्र सर्र की आवाज़ करते हुए उड़ गया और पहाड़ियों के ऊपर जाकर गिरा.. इसके साथ ही रस्सी में लगा हुक भी पहाड़ियों के ऊपर पहुँच गया. प्रोफ़ेसर ने रस्सी को दो तीन झटके दिए किंतु हुक नीचे नहीं आया.
"हुक पहाड़ियों पर अच्छी तरह फँस गया है. अब हम रस्सी के सहारे ऊपर पहुँच सकते हैं." उसने कहा. फिर उन्होंने रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ना शुरू कर दिया. सूटकेस उन्होंने अपने कन्धों पर डाल लिए थे. प्रोफ़ेसर उन तीनों में सबसे आगे था.
कुछ ऊपर चढ़ने के बाद अचानक प्रोफ़ेसर को कुछ ख्याल आया और उसने चौंककर चिल्लाते हुए कहा, "तुम दोनों मेरे साथ क्यों आ रहे हो? तीन लोगों के बोझ से यह रस्सी टूट नही जाएगी?" प्रोफ़ेसर की बात पूरी होते ही उसकी आशंका भी सत्य सिद्ध हो गई और रस्सी टूट गई. फिर वे एक के ऊपर एक गिरते चले गए
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