कोठेवाली -10
कोठेवाली -10
मोटे
मोटे हरफ़ो में जाहिदा का लिखा
जवाबी खत ताहिरा ने बार बार
पढ़ा।
लाहौर
२८ अगस्त १९७० 
बस्ती
टीले वाले कहते थे कि गाने का
हुनर मेरी आपा को घुट्टी में
मिला था। मैं कहती हूँ ताहिरा
कि माटी रूँधने का हुनर तेरी
धमनी में है। गुँधती माटी में
टोब्बे पड़ सकते हैं,
फुँदनी
उठ जाती है लेकिन तरेड़ नहीं
पड़ती। तरेड़ पड़ती है गीले बरतन
को तपाने में,
हर
बरतन का अपने हिस्से का ताप।
कम तपे तो कच्चा रह जाए,
ज्यादा
तपाओ तो तरेड़। एक बार तप कर
सूखा तो चाहो जब तक धूप में
पड़ा रहे। तप जाएगा दुबारा,
लेकिन
नई तरेड़ तभी पड़ेगी जब किसी की
ठोकर लगे।
मुझे ठीक से समझाना नहीं आता मेरी गुड़िया। लेकिन फिर भी कोशिश करती हूँ। माटी को रंगना क्यों? रूँधी माटी तो अपने ही रंग ले कर तपती है न? गाचनी, बिस्कुटी, स्लेटी, नीला, काशनी। हर रंग का अपना छोटा सा कुनबा। जितनी तेज़ धूप की गरमी उतनी चटख रंग की शोखी। जैसी झीनी छाँव, वैसा हल्का रंग। बस तू तो बरतन तपाने में लंदन की धूप छाँव का हिसाब बना ले। हर बरतन को उसी के हिस्से का ताप देगी तो न तरेड़ आएगी, न रंग मैला होगा उसका।
खुश
रहो मेरी जान।
सितम्बर के महीने में लंदन की धूप छाँव का क्या हिसाब? धुंध घनी हो तो दोस्त अजनबी बन कर गुम जाए, छंटे तो अजनबी हमकदम हो ले। क्लीवर विलेज में भी सुबह कोहरा बन के होती, दोपहर धुआँ बन के फैलती और शाम गुबार बन कर उमसती। करन सुबह के कोहरे को कोसता हुआ घर से निकलता और शाम का गुबार लेकर वापस आता। गुमसुम सी ताहिरा को देखता तो कभी टीवी चला देता और कभी अपने पास बिठा कर समझाता।
"तुम इतना सोचा न करो ताहिरा। देख लेना, टेलर के सबैटिकल का साल खत्म होने से पहले ही हम अपने घर में होंगे। अगर तुम्हें इसी इलाके में रहना पसंद है तो मैं यहीं ब्रूनेल में कोई अच्छी सी पोज़ीशन देख लूँगा।" वो बोलता जाता और ताहिरा सुन लेती। लेकिन उसे जो सुनाई देता, वो करन ने कहा होता तो ऐसे नहीं जैसे वह बोला था।
"यह क्या तुम हर वक्त मुँह फुलाए बैठी रहती हो, देखती नहीं यह सारा दिन मेहनत करके तुम्हें आराम से रखने की ही तो कोशिश में हूँ।" शायद करन ने ऐसा कभी नहीं कहा था, लेकिन ताहिरा को कई बार यही सुनाई दिया था।
एक दिन करन जब शाम को लौटा तो उसके हाथों में ताज़ा फूलों का गुलदस्ता था। ताहिरा को पकड़ा कर उसने चहकते हुए कहा।
"मैंने कहा था ना तुम्हें। मुझे ब्रुनल युनिवर्सिटी में इवेंट ऑर्गनाइज़र की पोस्ट ऑफ़र हुई है। नई युनिवर्सिटी है प्रोफेसर टेलर वहाँ की अॅडवाइज़री बोर्ड के मेम्बर हैं। उन्होंने ही मेरा नाम सुझाया था। अब तुम बस पिल्स खाना छोड़ो और अपने लिए जीते जागते खिलौने बनाने की तैयारी करो। हम लोग अगले महीने ही मूव कर जाएँगे, फिर चाहो तो अपनी खाला को बुलवा लेना।"
हमेशा की तरह आज भी करन एक ही साँस में ताहिरा से करने वाली बात को खत्म कर के ही रूका। अक्सर वह सुन भर लेती थी। आज पूछ बैठी,
"और
अगर मैं ऐसा न चाहूँ तो?"
टी वी चलाते हुए करन की पीठ थी ताहिरा की तरफ। वैसे ही चॅनेल्स के बटन दबाते हुए बोला।
"क्या
न चाहो?"
"वही
सब जो तुमने प्लान किया है।"
ताहिरा
ने कहा। और कुछ रूक कर बोली,
"मेरे
लिए।"
करन अब टी वी से नज़र हटा कर उसकी तरफ देख रहा था।
"क्यों भई, तुम्हें क्या परेशानी है?"
"कोई
खास नहीं। मुझे सोचने के लिए
वक्त चाहिए,"
ताहिरा
ने कहा और किचन की तरफ मुड़ते
हुए पूछा,
"खाना
लगा दूँ?"
"हाँ,
बड़ी
कस के भूख लगी है,"
कहते
हुए करन भी ताहिरा के साथ किचन
में आ गया।
"चलो,
आज
खाना मैं लगाता हूँ।"
उसने
ताहिरा के हाथ से प्लेटें ली,
खाना
परोस के एक प्लेट उसे थमा दी
और कहा,
"वहीं
टी वी के सामने बैठ कर खाएँगे।"
ताहिरा ने जो कहने के लिए कई बार सोचा था वह आज भी न कह पाई। बस उस रात जब करन ऊपर सोने गया तो वह देर तक नीचे अकेली टी वी के सामने बैठी रही। ऊपर तब गई जब उसने इत्मीनान कर लिया कि करन खर्राटे ले रहा है।
अगली सुबह घर से निकलते वक्त करन ने बड़े प्यार से ताहिरा का माथा चूम लिया।
"सोच लिया तुमने?" उसकी आवाज़ में शरारत थी।
"नहीं,
मुझे
वक्त चाहिए।"
ताहिरा
ने कहा।
"तो
लीजिए न वक्त मिसेज़ ताहिरा
ज़ुत्शी। हमारे साथ लाहौर की
कैम्प कॉलोनी से लंदन के क्लीवर
विलेज आने के बाद,
और
कुछ शायद आपको न मिला हो,
वक्त
की कमी नहीं है आपके पास।"
करन
की आवाज़ में तनज़ थी और चेहरे
पर मुस्कराहट।
"वैसे
भी इतने अच्छे मौसम में सोचोगी
तो अच्छा ही सोचोगी। इतने दिन
बाद खुल के धूप निकली है आज।"
करन के जाते ही ताहिरा ने जल्दी जल्दी हाथ के काम निबटाए और टूल शेड जा पहुँची। कुछ देर खड़ी होकर एक कोने में रखे मुँह बँधे थैलों में भरी मिट्टी के रंग पहचानती रही, फिर कोने के आखिर में रखा एक थैला उठाने के लिए शेल्फ के नीचे झुकी, थैला पकड़ कर सिर ऊपर उठाया तो शेल्फ से टकरा गई। स्टील के दो बै्रकेटस् के ऊपर बिना कीलों से टिकाया हुआ लकड़ी का शेल्फ उलट कर जमीन पर आ गिरा। उस पर रखे बरतन खिलौनों में से कुछ शेल्फ के नीचे दबकर टूट गए। कुछ एक दूसरे से टकरा कर जो कुछ साबुत सबुत बचे, उनमें एक ताहिरा के पैर से टकरा कर वहीं टिक गया था। ताहिरा ने उठा लिया, बिल्कुल साबुत था। बिस्कुटी रंग की छोटी सी, चौड़ी गरदन वाली मटकी। नीचे अधगीली माटी में चीची उँगली डुबो कर बनाए गए गोल गोल छेदों की तड़ागी, ऊपर गले में पड़ा छुरी से काट काट कर बनाया गुलूबंद। पूरा एक हफ़्ता लगा था ताहिरा को उसे सजाने सँवारने में। जब तप कर तैयार हुआ तो ताहिरा ने उसके अंदर एक छोटी सी, मोटी सी मोमबत्ती रख कर जलाई थी। करन के लौटते ही उसका हाथ पकड़ कर खींचती हुई टूल शेड में ले आई थी उसे। एक सरसरी नज़र डाल कर करन वापिस मुड़ गया था जैसे कोई छूटती हुई गाड़ी पकड़नी हो। ताहिरा भागी भागी उसके पीछे लिविंग रूम में पहुँची तो देखा कि वह जंक मेल को गौर से पढ़ रहा था।
ताहिरा ने हाथ बढ़ा कर जंक मेल का पुलिंदा करन के हाथ से हटा दिया और पूछा,
"तुम्हें
कैसा लगा?"
"क्या?"
"वही
जो मैं तुम्हें दिखाने ले गई
थी,"
"वो...।
ठीक था।"
करन
ने पुलिंदा वापिस लेते हुए
कहा,
"लेकिन
उस का तुम करोगी क्या?"
तहिरा टूल शेड में लौट आई थी मटकी में जलती मोमबत्ती बुझाने, और आज उसी मटकी को हाथ में उठाए जब वह लिविंग रूम की तरफ मुड़ी तो टूल शेड़ की जमीन पर टूटे बिखरे सभी बरतन खिलौने बगावती हो गए।
"इसे अंदर मत ले जाओ। हम तो हादसे का शिकार हुए हैं। एक ही बार जो चोट लगी थी, लग गई। वहाँ रोज रोज करन की रुखाई? कौन बर्दाश्त करेगा?"
ताहिरा ने मटकी को सँभाल कर ऊपर वाले शेल्फ पर रख दिया। बाकी सब कुछ वैसा ही बिखरा छोड़ कर तेज़ कदमों से टूल शेड के बाहर आ गई। धूप की रोशनी में अब कुछ गरमी भी आ गई थी। उसने एक बार आसमान को देखा, नहीं, वहाँ कोई बादल नहीं था। आज जैसा दिन न जाने फिर कब आए? धुंध आएगी, बर्फ गिरेगी, लेकिन आज धूप थी। उसे आज ही की धूप सेंकनी थी। इसी एक दिन में अपने हिस्से की धूप छाँव का हिसाब लगाना था। कम तपी तो कच्ची रहकर घुल जाने का वहम।
ज्यादा तपी तो तरेड़ पड़ने का खतरा। यह जो दिनों की धुंध के बाद आज धूप निकली थी, यह उसी के हिस्से का ताप था। इससे फ़र्क ताप शायद उसके हिस्से में न हो, न इससे कम न ज्यादा। लेकिन क्या इतना ही ताप उसकी जरूरत थी? कौन मापेगा? उसका हिस्सा? उसकी ज़रूरत?
ताहिरा दौड़ती सी बैकयार्ड से घर में घुसी और साँस रोके कागज़ कलम लेकर खत लिखने लगी। जब तक लिखती रही, एक बार भी सिर नहीं उठाया। इस खत का एक एक हरफ़ उसने कई कई बार लिखा था, बस कागज़ पर ही नहीं उतार पाई थी। आज लिखने बैठी तो कुछ भी वक्त नहीं लगा, न सोचने में, न कागज पर उतारने में।
खत लिख कर उसने पर्स में डाला और घर से बाहर निकल गई। थेम्स दरिया के किनारे पहुँचने में आज उसे पंद्रह मिनट भी नहीं लगे। वहाँ धूप सेंकने वालों का मेला लगा हुआ था। ताहिरा तब तक चलती रही, जब तक उसे एक खाली बेंच दिखाई न दी। वहाँ बैठ कर उसने पर्स खोला और अपना लिखा खत पढ़ा। पहली कुछ सतरें चुपचाप पढ़ीं, फिर बोल कर के जैसे किसी के पास बैठे से बात करती हो।
१० सितम्बर १९९०
अम्मीजान,
जाहिदा
खाला को खत लिखते तो मुझे डेढ़
बरस ही गुजरा है,
लेकिन
आपको मैं तब से खत लिखती आ रही
हूँ,
जब
मैं पढ़ना लिखना नहीं जानती
थी। मुझे यकीन है कि मेरे वो
सारे खत आपने पढ़े हैं और कहीं
सँभाल कर रख दिए हैं। मेरा यह
खत कहीं सँभाल कर रखने से पहले
क्या मुझे इसका जवाब नहीं लिख
सकतीं आप?
मुझे
वह जवाब चाहिए अम्मी क्योंकि
जो फैसला मैंने आज किया है,
वो
मेरा नहीं आपका है।
दिल्ली में मैंने जब करन से शादी करने को हाँ कर दी तो ज़ाहिदा ख़ाला नें कहा था,
"यह
शादी ताहिरा करन से नहीं कर
रही,
यह
तो बीबी बदरूनिसा की बेटी करवा
रही है।
अपनी मुसलमान माँ की, अपने हिन्दू बाप के साथ जो हमेशा उसका मुरीद तो रहा लेकिन शौहर न बन सका।"
करन
कहता है कि खूबसूरती का कोई
मजहब नहीं होता। होता है अम्मी
होता है। हिन्दू और मुसलमान
का मज़हब नहीं,
शौहर
और बीवी का मज़हब,
रिश्तों
और रवायतों का मज़हब।
मेरे अब्बा के साथ आपके रिश्ते को शादी की रवायत की जरूरत थी ही नहीं। होती तो मेरा वजूद ही न होता।
करन
के साथ मेरी शादी की रवायत
हुई। लेकिन रिश्ता?
नहीं
बन पाया अम्मी। बीच में मज़हब
की न भरने वाली खाई है। औरत और
मरद के मज़हब की।
यह कैसा रिश्ता है मेरा करन से अम्मी वो अपनी जिन्दगी का हर लम्हा भरपूर जी लेता है। मर्द की पूरी ईमानदारी के साथ, और मैं अम्मी? मैं? उसकी बीवी बनने के बाद चाहते अनचाहते उन लमहों का इन्तज़ार करती हूँ जब वो मुझे औरत बना देता है। बाकी वक्त जैसे मैं जीती ही नहीं। सिर्फ जिन्दगी का इंतज़ार करती हूँ। औरत होने का अगर यही मज़हब है अम्मी तो मैं काफिर हूँ। हिंदू होती तो बुतपरस्त कहलाती न लेकिन मैं बुतपरस्त नहीं हूँ। करन मेरा खुदा नहीं है कि मेरी जिन्दगी को औरत होने के चंद लमहों का करम फ़रमा कर मेरी इबादत का ताउम्र हकदार हो जाए।
ज़िन्दगी के जिस मोड़ से करन मुझे मिला था, मैं वहाँ लौट कर नहीं जा सकती, जाना भी नहीं चाहती। करन मुझे जहाँ ले आया है, वहाँ आकर मैं निखर गई हूँ अम्मी। यहाँ का उफ़क़, यहाँ की धूप, यहाँ की धुंध, सभी मुझे खूब रास आते हैं। बस अपने हिस्से की धूप छाँव का हिसाब मिलाना बाकी है मुझे। किसी दिन ज़ाहिदा खाला को अपने पास बुला लूँगी। लेकिन आज मुझे किसी से कुछ नहीं कहना। सिवाय आपके अम्मी आज के बाद मेरे हाथों कराई आपकी शादी टूट गई।
आपकी
ताहिरा
खत पढ़ने के बाद ताहिरा नें बेंच की सीट को अपने दुपट्टे से पोंछा, ख़त वहाँ रखा और उसकी एक काग़ज़ी किश्ती बना दी। फिर वह बैंच से उठ उठ कर दरिया किनारे खड़ी हो गई। हवा न के बराबर थी, लहरें इतनी मद्धम कि पानी ठहरा सा, धूप पूरे जोरों पर। ताहिरा किनारे के और करीब चली गई। कंधे झुकाकर एक हाथ आगे बढ़ाया और किश्ती को दरया में उतार दिया। किश्ती जब तक किनारे के साथ साथ मँडराई, ताहिरा वैसे ही झुकी रही। जब लहरे किश्ती को बहा ले गई तो ताहिरा सीधी खड़ी हो गई।
इतनी छोटी सी किश्ती के लिए क्लीवर विलेज का पड़ोसी तंग मुहाने वाला थेम्स दरिया भी समुन्दर था। ताहिरा अपनी किश्ती को नज़रों से ओझल होने तक उसे देखना चाहती थी। वहीं खड़ी रही, खड़ी रही और देखती रही। किसी ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया।
"अगर आप अपनी आँखों को ज़रा सा आराम देना चाहें तो मैं आपकी किश्ती पर थोड़ी देर के लिए नज़र रख सकता हूँ।"
बेहद नीली आँखों और बड़े लम्बे कद वाला एक गोरा नौजवान अजनबी ताहिरा के पास खड़ा उसे कह रहा था।
ताहिरा
मुस्करा दी।
"इस तरह अचानक मुस्कुराने से पहले आप कोई अलार्म की घंटी नहीं बजा सकतीं क्या? देखने वाले को चेतावनी मिल जाएगी कि उसकी आखें चौंधियाने को हैं।"
अजनबी
ने एक हाथ से अपनी आँखों को
दिखा कर कहा।
ताहिरा अब खुल कर हँस दी।
"मेरा नाम हैंक है, हैंक देहान" अजनबी ने अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा। उसका तलफ़्फ़ुज़ इतना फर्क था कि उसके सैलानी होने का हरफ़िया बयान दे रहा था।
"मैं ताहिरा हूं" ताहिरा ने हाथ मिलाया।
"आप
भी मेरी तरह टूरिस्ट हैं क्या?
मैं
हॉलेन्ड से आया हूँ।"
"मैं
यहाँ रहती हूँ"
ताहिरा
और हैंक अब दरिया किनारे साथ
साथ चल रहे थे।
"आप
पाकिस्तान से हैं या इंडिया
से?"
हैंक
ने उसके लिबास को एक बार फिर
देखकर पूछा।
"मुझे
नहीं मालूम"
ताहिरा
ने कह तो दिया और मन ही मन दोहराया
जैसे खुद अपना मुल्क़ी तआरूफ
माँगती हो।
हैंक की नीली आँखें कुछ छोटी हो गईं। उसके धूप में तपे हुए चेहरे का सवालियापन एक हल्की सी झुर्री बन कर उसकी पेशानी पर उभरा और गायब हो गया। अपने कंधे पर लटके कैमरे की तरफ उड़ती सी नज़र डालकर वह बोला,
"मैं
पेशावर फ़ोटोग्राफर हूँ। बहुत
से अख़बारों और पत्रिकाओं के
लिए फ्री लान्स तस्वीरें
उतारता हूँ। आप क्या यहाँ पर
स्टुडेंट हैं,
ताहिरा?"
उसके
मुँह से निकले ताहिरा के नाम
में 'ता'
कम
'हीरा'
ज्यादा
था।
ताहिरा ने सिर हिलाकर न कह दी।
"क्या
करती हैं आप?"
हैंक
ने फिर पूछा।
"मुझे
नहीं मालूम।"
ताहिरा
ने कहा।
हैंक चलते चलते रुक गया।
"देखिए,
और
आपको शायद कुछ मालूम हो या न
हो,
उतना
तो आप ज़रूर जानती होंगी जो आप
को पहलीबार देखने से कोई भी
जान सकता है।"
हैंक अब अपने दोनों हाथों का फोकस बनाकर ताहिरा को देख रहा था।
"उतना मैं भी जानती हूँ।" ताहिरा ने अपने आप को कहते सुना और चौंक गई। एक अजनबी के साथ ऐसी बेबाक़ी?
हैंक ने अब फिर से चलना शुरू कर दिया था।
"आप बुरा न माने तो पूछना चाहूँगा कि अगर आप चाहतीं तो इस वक्त क्या कर रही होती?" उसने पूछा।
"किसी
ऐसी जगह की तलाश में होती जहाँ
मुझे क्ले पॉटरी बनाने का काम
मिले।"
कहते
ही ताहिरा फिर से चौंकी। एक
अनजान हम कदम से अपनी इतनी
ज़ाती बात करना,
हो
क्या गया था उसे?
"आप
कहाँ-कहाँ
तलाश कर चुकी हैं?"
हैंक
ऐसे पूछ रहा था जैसे वहाँ
पहुँचाने का रास्ता जानता
हो।
"अभी
तो सिर्फ क्लीवर विलेज की
डायरेक्टरी में ही देखा है।
क्ले किसी और विलेज का नाम है।
और पॉटर नाम के चार परिवार इसी
इलाके में रहते हैं। क्ले
पॉटरी बनाने के साथ उनका कोई
ताल्लुक नहीं।"
ताहिरा के कहते ही हैंक ज़ोर ज़ोर से हँसा।
"आप
तलाश करती रहिए। अब कामयाबी
के बहुत करीब हैं आप।"
उसने
कहा और दरिया किनारे आकर रुकती
एक सैलानी किश्ती को देखने
लगा। उसके सीढ़ियों से उतरते
हुए लोगों में से एक ऊँची लंबी
लड़की की तरफ उसने हथेली पर
फूँक मार कर हल्का सा हवाई
बोसा उड़ाया और ताहिरा से कहा,
"वो
इंगा है,
मेरी
डेट,
किश्ती
की सैर करना चाहती थी।"
इंगा दौड़ती हुई आई और हैंक से लिपट गई।
"क्या बढ़िया नज़ारा था मुझे खूब मज़ा आया। जब मैं नहीं थी तो तुम ने क्या किया?"
"मेरी
ताहिरा से मुलाकात हुई।"
हैंक
ने कहा।
इंगा ने ताहिरा से मिलाने को हाथ बढ़ाया और ज़ोर से सीटी बज़ा कर बोली,
"कितनी
खूबसूरत हैं आप और आपकी पोशाक?
लगता
है किसी फ़रिश्तों की दुनिया
का पहनावा है।"
वो
ताहिरा के दुपट्टे को छू रही
थी।
"क्या आपके साथ मैं एक तस्वीर खिंचवा सकती हूँ? अपना पता देंगी हमको? आप के लिए एक कॉपी डाक से भिजवा देंगे।"
ताहिरा
ने फोटो खिंचवा ली और पता दे
दिया।
ताहिरा बदरूनिसा
केअर
ऑफ चित्रा मलिक
२३
बी केंसिंग्टन स्ट्रीट
लंदन
••••
छः साल के टिम्मी और चार साल की कैथी को उनके अपने अपने कमरों में सुला कर ताहिरा जब निकली तो गलियारे की दीवार से लटकी घड़ी रात के आठ बजा रही थी। ताहिरा पहले गलियारे के छोर वाले अपने कमरे की तरफ जाने को मुड़ी। फिर उसने इरादा बदल दिया। सोने से पहले एक बार फिर नए आने वाले मेहमान की नर्सरी देख आने का लालच हो आया। वहाँ हल्के नीले और मोतिया सफेद रंग में सजे कमरे का ताज़ा पेंट किया हुआ पालना मुलायम तकियों, गद्दों और कम्बलों से भरा था, टिम्मी और कैथी अपनी अपनी सोने की पारी ले चुके थे उस पालने में। ताहिरा ने हथेली पर फूँक कर पालने को एक किस नज़र किया और मुस्करा कर कहा,
"हमारे
नन्हें मुन्ने खैरियत से आना,
अच्छी
सेहत लेकर आना।"
अपने कमरे में लौट कर ताहिरा ने खिड़की का परदा हटा दिया। क्लीवर विलेज की कॉटेजेस की ढलान वाली छतें, यहाँ-वहाँ खड़ी कारें और बिजली के खम्भे, सभी ने दूधिया सफेद बर्फ का गुदगुदा कम्बल ओढ़ रखा था। ऊपर से कोई शाहकार पैंजा किसी खामोश तूँबे से एक बिना ओर छोर का लिहाफ भरने के लिए मुसलसल हल्की महीन सफेद रूई सी बर्फ़ बिखरा रहा था।
ताहिरा ने खिड़की के पास रखे छोटे से मेज़ पर रखा टेबल लैंप जला दिया और ज़ाहिदा को खत लिखा।
डाल्टन
कॉटेज
क्लीवर
विलेज
२२
नवम्बर १९७०
मेरी प्यारी खाला,
अपनी
सालगिरह पर मुझे अपका ढेरों
प्यार मिला। शायद आप नहीं
जानती कि आपका लिखा खत पढ़ कर
मुझे ऐसे लगता है कि मेरी पूरी
डिक्शनरी में तलाश करने पर
भी जिस हरफ का मतलब नहीं मिलता,
वही
लिखकर आप क्या क्या कह देती
हैं। आप क्या नजूमी हैं खाला
जान?
किताब
का पन्ना जो मैंने खोला भी
नहीं,
उसे
आप पहले ही पढ़ चुकती हैं।
आपका अंदाज़ा बिल्कुल सही था, टिम्मी और कैथी ने कल सारा दिन खूब धमा चौकड़ी मचाई। सुबह मेरे जागने से पहले ही अपने रात के कपड़ों में लुढ़कते पड़ते मेरे पास आ गए। सारा दिन मुझसे गुब्बारे फुलवाते रहे और खुद लाल, नीले, पीले रंग के चॉक पेन्सिलों से साल गिरह मुबारक की तस्वीरें कार्ड छापते रहे। शाम को केक के ऊपर मोमबत्ती लगाने के लिए गुथम्गुत्था हो गए और फिर बराबरी से दोनों ने बारह बारह मोमबत्तियाँ जलाईं। केक काटने के बाद लड़ न पड़ें, इसलिए मैंने एक नहीं दो टुकड़े काटे और दाएँ बाएँ दोनों हाथों से एक ही वक्त दोनों को खिलाया।
मिस्टर और मिसेज़ डाल्टन कहते हैं कि अब उन्हें अगले महीने नर्सिंग होम जाने में बिल्कुल इत्मीनान रहेगा।
आपने
पूछा है न कि मेरे माटी के साबुत
बचे बरतन खिलौने कहाँ हैं?
यहीं
है मेरे कमरे में। कुछ शीशे
की अलमारी के ऊपरी खाने में,
कुछ
नीचे वाले ड्राअर में,
मोमबत्ती
वाली मटकी नीचे लिविंग रूम
की फ़ायरप्लेस के आगे वाले
पत्थर के प्लेटफॉर्म पर एक
कोने में रखी है। मिसेज़ डाल्टन
को बहुत पसंद आई थी। मैंने नज़र
कर दी। वो कहती हैं कि मेरी
हाथ की गुँधी माटी का अपना ही
रंग है। उन्होंने बताया है
कि क्लीवर विलेज में ही सूखे
और ताजा फूलों की बीस दुकानें
हैं। पूरे रॉयल बॉरो में शायद
सौ से भी ज़्यादा होंगी। नए आने
वाले बच्चे के कुछ बड़ा होने
तक,
वो
मुझे इनमें से किसी दुकान पर
हफ़्ते में एक दो बार काम करके
ज़्यादा पैसा बनाने की इजाज़त
दे देंगी।
यहाँ डाल्टन कॉटेज में रहने खाने का मेरा ख़र्चा नहीं है, उपर से महीने के एक सौ पाउंड भी मिलते हैं। मैंने बचाने शुरू कर दिए हैं, आपको यहाँ बुलाने के लिए, फिर हम दोनों मिल कर एक छोटी सी दुकान खोलेंगे। गुलदान, गमले, चाटियाँ, कसोरे, मटकिया बनाएँगे। अपने हाथों से, खुद रंग माटी को उसी के हिस्से का ताप देकर। मैंने दुकान का नाम भी सोच लिया है, जानती हैं क्या?
"कोठेवाली"
आपको याद है खाला जान, जब गुजरात के बेकरी वाले बख्तियार की घरवाली हमें मिलने लाहौर आई थी।
"खुदा
बद नज़र से बचाए इसे,"
उसने
मुझे देखते ही कहा था,
"क्या
शहजादी जैसी लगती है। ढक्की
दरवाज़ा गली वालों को पता न
होता कि कोठेवाली की औलाद है
तो मैं अपने फखरू के लिए ले
जाती। बड़ा गबरू जवान निकला
है वो भी माशाअल्लाह।"
मुझे आपका उस दिन का जवाब आज फिर साफ साफ सुनाई दे रहा है,
"कोठे
दुमंजिलें,
तिमंज़ले
घरों के हुआ करते है बाजी।
मेरी आपा जहाँ पैदा हुई,
पली
रही,
वहाँ
तो ऊपर छत को जाने वाली कोई
सीढ़ी भी नहीं थी,"
आपने
कहा था।
आप जानती हैं खाला जान? अगर मैं भी उसी घर में पैदा होती तो क्या करती?
मैं पड़सांग लगा कर जब जी चाहता, ऊपर छत पर चली जाती।
आपकी
ताहिरा
समाप्त
Credit-
abhivyakti-hindi 
 
 
 
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