कोठेवाली -5


कोठेवाली -5



तख्तपोश के सफेद मसनद से टिके हुए ठेकेदार निसार अहमद ने अपनी खिजाब से रंगी मूछों की सफेद जड़ों पर हल्की सी अँगुली फेरी, छोटा सा खंखार लिया और खामोशी तोड़ दी।



"रश्क होता है असदुल्लाह खान गालिब के नसीब से, जिए तो एक नेकबख्त बीवी की वफा और एक कामिल गजलसरा की बेपनाह मोहब्बत पाई। मरे तो बीबी बदरुन्निसा नें जिला दिया।"
"सच मानिए तो यह इब्ने मरियम वाला किस्सा मेरी समझ में नहीं आया ठेकेदार जी।" नुक्कड़ वाले मकान के नीचे की बेकरी वाली दुकान के मालिक मियाँ बख्तियार ने अपने पहलवानी कंधे उचका दिये।
"परवरदिगार हमें गुस्ताखी की माफी दें मियाँ शायर का कहना है कि कोई मसीहा हो या पैगम्बर, हमें क्या? जब तक कोई हमारे दुःख कम न करे तो हमारा कौन?" ठेकेदार निसार अहमद ने अपनी अदबी और मजहबी सूझबूझ का सिक्का उछाल दिया।



सर्राफ जमाली कामकाज के सिलसिले में हर किस्म के लोगों से मिलते थे। खरी बात कहने में माहिर थे।
"मुकदी गल्ल ते ऐ हैगी ऐ बादशाओ कि रब्ब नाल गिला शिकवा कर के बंदा जाए ते कित्थे जाए? साढ़ी शिकायत ते रेडिओ वालियाँ नाल ऐ। असी एत्थे आने आ ते बदरूनिस्सा दीया नसा खिच्च के नशा करन वालीयां गजला सुनने वास्ते। पीरां पैगम्बरा दीयां नसीहताँ सुननिया होंदिया ते होर किदरे जान्दे।"
बैठक की रेडिओ मंडली सर्राफ जमाली से बिल्कुल मुत्तफक हो गई। फैसला हुआ कि कोई लाहौर जाकर रेडिओ वालों से मिले। हो सके तो मामले की जड़ तक पहुँचे। इबादत करने, मुजरा सुनने और कलाम कहने के मुकाम मुख्.तलिफ होते हैं। आवाजें. भी अलग अलग। बदरुन्निसा की आवाज में तो उन्हें इश्को–रूमान की गजलें ही सुनने को हैं जिनमें खुशबू हो, रंग हो, जायका हो। रेडिओ वाले न माने तो खुद बदरुन्निसा तक ही बात पहुँचे।
रेडिओ लाहौर वालो से मिलकर पसंजर गाड़ी में गुजरात लौटते हुए बदरीलाल नें फिर एक बार अपनी शेरवानी की ऊपरी जेब से वो परचा निकाला जिस पर उसने बदरुन्निसा का पता लिखा था।
दीनू ललारी
रंगरेजा बस्ती
गुजरात सरकारी कचहरी के पीछे
सरकारी कचहरी की इकमंजिला इमारत के पीछे गर्दो गुबार उड़ाता एक सपाट मैदान था। दूर दूर तक कोई बस्ती नजर नहीं आती थी। जब देखो, कुछ अधनंगे, सिर मुँडाए लड़के यहाँ वहाँ मटरगश्ती करते दिखाई देते थे।
कचहरी के पिछले बरामदे की चिक उठाकर बदरीलाल नें एक लड़के को इशारे से पास बुलाया।
"मैदान के उस पार क्या है?"
"गंदा नाला है।"
"और नाले के पार?"
"बस्ती है।"
"तू बस्ती में रहता है?"
लड़के ने हाथ उठाकर बदरीलाल से रुके रहने को कहा और भाग गया। लौटा तो उसके साथ एक और लड़का था।
"तू बस्ती में रहता है?"
नए लड़के ने ज़ोर ज़ोर से सिर हिला दिया
"अब्दुल्ला रहता है बस्ती में। मैं तो कुम्हारी टीले का हूँ।"
अब्दुल्ला काफी जानकार निकला।
"दीनू ललारी को मरे तो बरसों हो गए जी।"
तो बदरुन्निसा कुँवारी नहीं बेवा थी, बदरीलाल ने सोचा। रेडिओ मंडली की अटकलों में बेवा का तो कभी ज़िक्र ही नहीं हुआ था।
"और दीनू ललारी की बीवी?" उसने अब्दुल्ला से पूछा।
"वो भी मर गई जी, दोनों को उपर तल्ले हैजा हुआ था।"
यतीम बदरुन्निसा के लिए बदरीलाल को कुछ हमदर्दी तो हुई लेकिन गंदा नाला पार करने की बात मन में आते ही मन उचट गया।
अब्दुल्ला बोलता गया।
"दीनू लल्लारी की दोनों लड़कियाँ रहती हैं अपने मरे माँ–बाप के घर। कुम्हारी टीले पर उनके नानके हैं। वहाँ नहीं रहतीं, बस्ती में रहती हैं। कोई मरद नहीं है घर में, न कोई भाई न बड़ा। छोटी कुम्हारन है, बड़ी मरासन।"
गजलसरा बदरुन्निसा को मरासन बनाकर अब्दुल्ला तो चला गया। लेकिन बदरीलाल ने फैसला किया कि अपनी रेडिओ मंडली का भरम तोड़ना कोई जरूरी नहीं। लगने दो अटकलें, होनें दो चुहल।
अगले शनिवार रेडिओ लाहौर से बीबी बदरुन्निसा की आवाज ने सुनने वालों से मोमिन खाँ मोमिन का कलाम कहने की इजाजत चाही। फिर जो गाया तो सुनने वाले झूम झूम गए। हाथ उठा–उठा कर दाद दी। ग़ालिब और मोमिन के चुनींदा शेर दुहराए। एक दूसरे को मुखातिब करके ठेकेदार निसार अहमद, बेकरी वाला बख्तियार और सर्राफ जमाली एक ही शेर दुहरा कर मोमिन को सलाम करते रहे।
"रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह,
अटका कहीं जो आप का भी दिल मेरी तरह।"
हुक्का गुड़गुड़ाते बदरीलाल से रहा नहीं गया।
"चाहो तो गाने वाली को खुद मिल कर दाद दे सकते हो। इसी शहर में रहती है।"
बस फिर क्या था? कतार सी लग गई। पहले कौन जाए? जब बदरीलाल ने पता बताया तो सब चुप हो गए।
ठेकेदार निसार अहमद ने छेड़खानी की।
"क्या बात है यारो? सोहनी कुम्हारन को मिलने के लिए एक शहजादा गड़रिया हो गया। शायरे आलम मिर्ज़ा ग़ालिब को गजलसरा डोमनी के घर जाने में कोई हिचक न हुई। आपको रंगरेजा बस्ती पहुँचने के लिए रास्ते में गंदा नाला पार करना पड़ा तो क्या हुआ?"
"आप ही क्यों नहीं हो आते, ठेकेदार साहिब?" बदरीलाल नें हुक्के की नाल निसार अहमद की तरफ बढ़ा कर कहा।
ठेकेदार निसार अहमद ने इत्मीनान से एक लंबा सा कश गुड़गड़ा दिया। शरारती नजरों से धुएँ के बादल को सिमटते बिखरते देखते रहे। फिर हल्की सी आँख मारकर बदरीलाल के हाथ में हुक्के की नाल लौटाते हुए आह भरी।
"रायसाहिब, रंगरेजा बस्ती सरकारी कचहरी के पीछे पड़ती है। पी.डब्ल्यू.डी. के दफ्तर के पिछवाड़े लगती तो बंदा जरूर बदरुन्निसा को सलाम करने हाज़िर हो जाता।"
"अच्छी बात है।" बदरीलाल ने घर के अन्दर की तरफ खुलते हुए बैठक के दरवाजे की तरफ एक नजर डाली। वहाँ चिक के पीछे कोई नहीं था।
"अपनी अपनी फरमाइश बता दें। मैं बीबी बदरुन्निसा तक पहुँचा दूँगा।"
ठेकेदार निसार अहमद कुछ ज़्यादा ही मूड में थे। हुक्के की नाल माँगने के लिए बदरीलाल की तरफ हाथ बढ़ाते हुए उन्होंने फिर आँख मारी, "फलहाल तो आप अपनी ही फरमाइश लेकर जाइये रायसाहिब। अगर उन्होंने रूबरू कलाम कह दिया तो फिर हम भी पहुँच जायेंगे किसी दिन।"
रंगरेजा बस्ती में दीनू ललारी के घर की साँकल खटका कर बदरीलाल एक तरफ खड़ा हो गया। एक चौदह पंद्रह बरस की गोल मटोल लड़की नें दरवाजा खोला और फ़ौरन उड़का दिया। फिर उड़के दरवाज़े की ओट से एक गंदमी चेहरा बाहिर निकला और बड़ी–बड़ी घनी पलकों वाली एक जोड़ी बेहद स्याह आँखें सवाल बन कर बदरीलाल के चेहरे पर टिक गईं। लड़की बोली कुछ नहीं।
अगर यही लड़की बदरुन्निसा है तो शायद हरफ उठाये है और अपनी आवाज सुनने और चेहरा देखने का मौका एक ही वक्त किसी अजनबी को नहीं देगी। मगर इतनी कम उम्र में ऐसी आवाज?
"क्या बीबी बदरुन्निसा यहीं रहती हैं?" बदरीलाल ने निहायत नरम आवाज में पूछा।
दरवाजा फिर बंद हो गया।
गंदा नाला पार करने से रंगरेजा बस्ती पहुँचने तक बदरीलाल के पीछे–आगे छोटे बड़े लड़कों का एक अच्छा खासा जुलूस इकठ्ठा हो गया था। मुँह बाए, सर खुजाते, ढीले झग्गों की आस्तीनों को खींचते अब वो सब के सब दीनू ललारी के घर के सामने मुस्तैदी से तैनात हो गए थे। ज्यों ही दरवाजा फिर खुला, भागते दौड़ते नजर आए।
गंदमी चेहरे वाली लड़की अपनी धारीदार चुन्नटों वाली चुन्नी का पल्ला सँभालती दरवाजा उड़का कर दहलीज पर खड़ी हो गई।
"आपा पूछती है यहाँ क्यों आए हो?"
"मैंने लाहौर जाकर रेडिओ वालों से यह पता हासिल किया है ताकि बीबी बदरुन्निसा को खुद बता सकूँ कि इसी शहर में कितने लोग उनकी गजलें शौक से सुनते हैं। अगर वह इजाजत देंगी तो फिर किसी दिन आ जाऊँगा।"
उढ़का दरवाजा किसी ने अन्दर से खोल दिया। नीचे दरवाज़े की ऊँची दहलीज पार करने में बदरीलाल को अपना साफ़ा बँधा सर काफ़ी झुका कर जाना पड़ा। एक बार अंदर गया तो काफ़ी देर बाद बाहर लौटा। जब लौटा तो बार–बार वापिस आने के लिए। कभी कचहरी के काम की जल्दी निबटा कर दिन ही दिन गया। कभी शाम की सैर को और लम्बा करके दिन ढलने पर गया। पहले कुछ महीने आगे पीछे नजर डालता, फिर एकदम बेबाक। बिना नागा हर इतवार, सिवाय उस इतवार के जब एकादशी हो।
एकादशी वाले दिन बदरीलाल की हिंदू बीवी तड़के ही नहा धोकर पति के हाथों से कुटी मूँग की दाल, चावल, घी और ताँबे के सिक्के मँसवा कर मिसरानी को दे देती। कुल पर आने वाली बलाएँ टालने के लिए हर महीने पहले चाँद की रात घर के मालिक के हाथों बिना अन्नजल ग्रहण किए दान कराने की रीत थी। बदरीलाल तो दान की थाली मँसवा कर खा लेता। लेकिन उसकी बीवी चाँद निकलने तक निर्जला व्रत रखती। चौबारे जाकर चाँद को अर्ध्य देकर उतरती तो रसोई में आकर बदरीलाल दो पत्तलों के दोने उसके हाथ में थमा देता। एक में ताजा मिठाई, दूसरे में ताज़े फूलों का गजरा। मिठाई मुँह में डालकर वह व्रत तोड़ती। गजरा कभी अपनी कलाई, कभी चोटी में लपेट लेती, और कभी किसी घड़े या सुराही की गर्दन को पहना देती।
मोगरे के फूलों का गूँथा हुआ गजरा वह चाहे कहीं भी लपेटे, उसकी महक कई दिनों तक बदरीलाल की बीवी के बदन से उठती रहती। एकादशी के कम से कम हफ्ता बाद तक वह इतराई सी फिरती। पंजों के भार खड़ी होकर कभी अपनी उचकी एड़ियों पर लगी मेहँदी को देखती। इधर उधर नजर डालकर कभी गर्दन के नीचे सिर झुकाती और अपनी कमीज के उभारों को सहारा देती। अधपके बालों की किसी लट को बल देकर माथे पर गिरा देती और किसी को सँवार कर कान के पीछे सरका देती। वक्त बेवक्त कुछ गुनगुनाती। फल तरकारी की टोकरी बनवा कर नुक्कड़ वाले मकान में बदरीलाल की बेवा बहन के पास भिजवाती। फिर थोड़ी देर बाद खुद बुरका पहन कर हम उमर ननद का दुःख सुख पूछने पहुँच जाती।
क्रमश:•••





Credit- abhivyakti-hindi

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