कोठेवाली -3


कोठेवाली -3




बदरीलाल ने जब पहली बार गंदा नाला पार किया तो उसे नाक पर रूमाल रखना पड़ा था। नाले के उस पार भी एक सपाट मैदान था जिसे हाजतमंद बेरोक टोक खुले आम इस्तेमाल करते थे। कुछ ही कदम चल कर बदरीलाल शशोपंज मे आ गया। अपने कदमों पर नजर रखने के लिए गरदन झुकाकर चलता तो खाया पीया मुँह को आता। बिना नीचे देखे कदम उठाता तो किसी सूखी या लिजलिजी ढेरी पर पाँव पड़ने का अंदेशा। ठिठक गया वो। आगे पीछे दोनो तरफ नजर डाली। मैदान के अगले छोर तक पहुँचने का रास्ता कम और लौटने का ज्यादा लगा। नाक मुँह ढक कर वह आगे बढ़ा। मैदान पार किया तो एक पगडंडी के मुहाने पर खड़ा था।
पगडंडी के एक तरफ दूर दूर तक काली सलेटी, गेरूआ, गाचनी माटी के बरतन खिलौने धूप सेक रहे थे। जमीन पर मुँह औंधाए छोटे बड़े मटके। गर्दन ऊँची उठाये एकमुठी, दोमुठी नक्काशी सुराहियाँ। मैदान की धूल से जरा सा सिर निकाल कर झाँकते हुए चपटे कसोटे। आजू बाजू तैनात लंबे चौड़े गमले। चौमुखे दीये और खील फुलियो की हट्टियाँ। हौदे वाले हाथी। सवार समेत घोड़े। और इस भरपूर बेजान सी दुनिया के उपर उमस भरी दुपहरी में भूले भटके हवा के झोंके को तरसती गुँधी गुँधाई माटी की महक।
कहीं से जरा भी आवारा बयार की लय फूँक उठती तो चिलमों और मटकी की महकती साँसें पगड़ंडी के दूसरे किनारे ठुमक कर पहुँच जातीं। वहाँ लंबे बाँसों से तान कर बँधी हुई रस्सियों में घिरा रंगों का डेरा था। कड़क कलफ और अकडू अबरक से तने हुए ऊदे, नीले, नसवारी, केसरी और गुलाबी साफ़े थे। फरोज़ी, बदली, फलसई, अंगूरी, जहरमोरे और चंपई दुपट्टे हल्की सी माँड ओढ़े, तने हुए साफ़ों से अपनी दूरी बनाए थे। साफ़ों और दुपट्टों की निगरानी में चुन्नटों से सिमटी सतरंगी लहरियों वाली चुन्नियाँ थीं।
एक ही पगडंड़ी के इस तरफ महक का गुबार और उस तरफ रंगों की शोखी।
रंगरेजा बस्ती पगडंडी का आखरी पड़ाव थी।
उसके बाद कुम्हारी टीले तक जाने के लिए कोई एक रास्ता नहीं था। जहाँ कदम मुड़े वहीं रहगुजर निकल आती। लिपेपुते बेतरतीब बिखरे घरों के जमघट में न कोई आगा था न पीछा। किसी के आगे तंदूर लगा सहन तो किसी का आगा मवेशियों का तबेला। किसी के बाज़ू में चारा काटने की रहट तो किसी के साथ जुड़ी दाने भुनाने की भट्टी। कुम्हारी टीले वाले पानी लेने रंगरेजा बस्ती के कुएँ पर आते। बस्ती वालों को अपने भाँडे–टींडे कलई करवाने टीले पर जाना होता। इतनी शादियाँ हुई थीं बस्ती टीले में कि कोई भी किसी की कुड़मों का पिंड कह देता।
पगडंड़ी पार कर के रंगरेजा बस्ती में जाते बदरीलाल के कदम रूक गए। एक खटका सा उठा। न जाने कौन छींटा कसी कर दे? कहाँ से आकर कोई कीचड़ उछाल दे? बचे खुचे रंगों के घोल की कोई कमी तो थी बस्तीवालों को।
गुंधी कीचड़ में सनी उँगली छिटक देने में क्या वक्त लग सकता था टीले वालों को?
लेकिन बस्ती टीले वालों की अपनी ही तहज़ीब थी। वह कीचड़ रौंधते थे तो ओसारे के चाक पर चढ़ा कर सँवारने के लिए। माटी का दोष तब न जब ओसारे से निकले बरतन खिलौने में तरेड़ मिले? वहा रंग घोले जाते थे अलग थलग रख कर पक्के करने के लिए। रंगों में खोट तब जब ललारी के हाथ से यूँ ही छिटक कर एक बूँद किसी दूसरे रंग के कपड़े पर जा गिरे? झक्ख सफ़ेदी पर दाग लगा दे।
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कुम्हारन माँ और रंगरेजा बाप की बेटी थी बदरुन्निसा। ओसारे में चाक पर चढ़ी माटी को उसने भी रौंधा था। माँड़ पकाते कढ़ाहों के नीचे सरकंडों की आग ऊँची करने के लिए धुएँ में उसने भी फूँकें मारी थीं। लेकिन उसका सा रूँधा और भर्राया गला और किसी का न हुआ। मुलठ्ठी और शहद की घुट्टी चाटी। बनफशे का काढ़ा पीया। गले में तरावट आई। लेकिन आवाज का धुँधलका न छूटा। बोल निकले तो गाढ़े। बातें बनी तो साज और सुर साधे तो तरन्नुम। पके मटकों पर मेहँदी लगे हाथों से थाप देकर गाती बिलकीस बस्ती टीले के हर मौके का बेज़ोड़ गहना बन गई।
टीले वालों के एक ब्याह में लाहौर से आए बदरू मामा बिलकीस को दो दिन के लिए अपने साथ ले गए। लौटे तो बदरुन्निसा को साथ लेकर। रेडिओ वालों ने बदरू मामा के नाम से जुड़ता नया नाम दे दिया बिलकीस को। साथ ही हर शनिवार उस की गायी एक गजल रेडिओ से सुनाने की दावत। गजलों की पसंद रेडिओ वालों की, आवाज बदरुन्निसा की। वह महीने में एक या दो बार लाहौर जाकर गजलें रिकार्ड करवा आती। बुरका उसका। आने जाने का रिक्शा और पसंजर गाड़ी का किराया, खर्चे पानी का बंदोबस्त, सब रेडिओ वालों का। बस आवाज बदरुन्निसा की।
••
"आपको मेरी आवाज यहाँ खींच लाई थी न मैं गाना बंद कर दूँ तो?" बदरुन्निसा ने पूछा।
अपने होठों से बदरुन्निसा के कुरते के बटन खोलता बदरीलाल कुछ नहीं बोला। उस लमहा सारी काईनात में उसके अहसास का एक ही मरकज था। वहाँ पहुँचने से पहले अगर वह साँस भी खींच कर ले लेता तो पूरी काईनात बिखर जाती। बस उसकी रंगों का पुरज़ोर उफान हर बाज़ू में आठ आठ हाथ बनकर बदरुन्निसा के गठीले बदन का हर उतार चढ़ाव सहलाता रहा, कचोटता रहा।
"यहाँ भी," बदरुन्निसा ने सिमट कर कहा।
"वहाँ भी," उसने बिखर कर खैरात माँगी।
"हाय अल्लाह, मैं मरी। मैं गई।" वह सिहर सिहर उठी।
"रूक जाइए न," उसने बदरीलाल की ढ़ीली पड़ती गिरफ्त को अपनी बाहों के घेरे में कसना चाहा।
"बस अब नहीं, कपड़े गीले हो जाते हैं।"
"घर में नहीं होते क्या?"
"वहाँ बदलने का इंतजाम है।"
"यहाँ भी हो सकता है"
"यह मेरा घर नहीं है।"
बदरुन्निसा नें उठ कर कोठरी के अंदर से लगी साँकल खोल दी। बदरीलाल को तख्तपोश पर बैठने के लिए गाव तकिया दिया। और मुंज के कानो का एक मोढ़ा खींच कर उससे कुछ दूर जा बैठी।
"आपकी घरवाली का नाम क्या है?"
"चाँद रानी।"
"बहुत खूबसूरत है?"
"हाँ।"
"आप से क्या क्या बातें करती है?"
"भाजी तरकारी की। नाते–रिश्तेदारों की।"
"और आप?"
"मैं सुन लेता हूँ।" बदरीलाल ने अब जूते पहनने शुरू कर दिये थे।
"मैं आप से बात करूँ?"
उठते उठते बदरीलाल बैठ गया। सिर से हुंकारा कर भर कर बोला,
"करो।"
"आपको पता है कि कचनार के फूल की कली उबाल कर डालने से घुले हुए रंग गाढ़े हो जाते हैं। लेकिन कचनार की डंडी की एक बूँद भी रंगे कपड़ों पर पड़ जाए तो दाग लग जाता है, कभी नहीं छूटता। कनेर के फूलों से . . ."
बदरीलाल अब सहन के दरवाज़े की ओर मुँह करके खड़ा था। बदरुन्निसा नें बढ़ कर बाहर के दरवाज़े की साँकल खोल दी। दहलीज के पार खड़ी होकर अपनी किंगरी वाली फरोज़ी चुन्नी का पल्ला मरोड़ती हुई बोली,
"अल्लाह मियाँ अगर हफ्ते में दो इतवार बना देता तो।"
••••
हर इतवार बिना नागा आनेवाला बदरीलाल उपर तल्ले दो इतवार नहीं आया। तीसरे इतवार तो पहले चाँद की रात थी, उसे आना भी नहीं था। लेकिन तड़के ही दीनू ललारी के बाहर वाले दरवाजे. की साँकल ऐसी बजी जैसे खटकाने वाला बहुत ही जल्दी में हों। बदरुन्निसा ने दौड़ कर दरवाजा खोला। ढीला ढीला कुरता और मटमैली तहमद पहने एक लंबा चौड़ा पहलवान सा काला धुत्त आदमी चौखट से लगा खड़ा था। बदरुन्निसा पर नजर पड़ते ही जहर आलूदा आवाज में बोला,
"बदरीलाल हर इतवार तेरे पास ही आता है?"
बदरुन्निसा को लगा कि अगर उसने सिर भी हिला दिया तो उसकी खैर नहीं। पता नहीं आने वाला किस इरादे से आया हो। उसने हाथ बढ़ाकर दरवाजा बंद करना चाहा। पहलवानिया आदमी ने धूल सनी गुरगाबी में से फूल कर उठता हुआ अपना एक गठीला पैर दहलीज पर टिका दिया,
"जाती कहाँ है बेहया? तू ही है न वो मरासन जो रेडिओ पर गाती है?"
"मैं बदरुन्निसा हूँ।" वह सहम कर बोली।
बेकरी वाले बख्तियार को अपनी आँखों पर यकीन न हुआ। रेडिओ मंडली में लगी एक भी अटकल उस औरत पे पूरी नहीं उतरती थी जो उसके सामने थी। मंझला कद, दुहरा बदन, कढ़ी हुई कम दूध वाली चाय जैसा रंग। जुड़ी हुई भवों वाला माथा। उमर कोई पचीस के उपर। और गर्दन ऐसी लंबी तनी जैसे कोई मगरूर परीजादी हो।
ढ़क्की दरवाजा गली की बाकी औरतों की तरह बदरीलाल की बीवी भी बाहर निकलते वक्त बुरका पहनती थी, बैठक से घर की तरफ खुलने वाले दरवाज़े की चिक के पीछे कभी कभार उसकी लंबी परछाई में छरहरी काठी ही बेकरी वाले बख्तियार ने देखी थी।
"हाथ लगाए मैली होती है जी।" बख्तियार की घरवाली ने बताया था, "माँ बाप ने सोच कर ही नाम चाँदरानी रखा है। दो जवान बेटों की माँ हो गई पर मजाल है कि जिस्म की मलाई उतरी हो। हाथ पैर कबूतर के परों जैसे कूले है। जब कभी जाओ, हँस कर मिलती है।"
"यहाँ क्यों आए हो?" बदरुन्निसा बड़ी बेरूखी से पूछ रही थी। उसकी जुड़ी भवों के उपर की शिकन और भी गहरी हो आई थी।
"तुझे यह बताने कि तेरी बद्दुआओं से बदरीलाल की नेक बख्त बीवी के पेट में रसौली फूटी है। घरवाले उसे पिंडी के बड़े अस्पताल ले गए हैं। तेरा यार जाती बार मुझे कह गया था कि तुझे बता दूँ।"
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चिता में लगाई आग को सन्न चेहरे से देखता बदरीलाल सकते में आ गया। बदरीलाल की बीवी के लाल जोड़े से सजे जिस्म के फूले हुए पेट से पानी की एक तेज धार फूटी और जलती हुई लपटों से ऊँची उठ गई। देखने वालों के हाथ खुद–ब–खु.द तौबा के लिए उठे और रहम की दुआ माँगने लगे।
"गम का गोला अंदर ही अंदर दबाये जीती थी। आज सब गमों से छूट गई।"
"अधमरी को मारने ले गया था अस्पताल में। उन्होंने चीरा देकर पेट खोला और जालिम कैंसर देख कर वहीं दुबारा सी दिया।"
"कैंसर से जालिम तो यह खुद निकला जी। घरवाली सहकती रही और यह मौजें करता रहा।"
"आँख की शरम होगी इसे तो अब उस मरासन के पास भी न फटकेगा।"
"कौन जाने उसी को खुदा का ख़ौफ आ जाए।"
"उसे कोई शरम–लिहाज होता तो यह चिता क्यों जलती?"
बदरुन्निसा रंगरेजा बस्ती छोड़कर ढक्की दरवाजा गली आ गई। बदरीलाल के साथ उसी के घर में रहने लगी। न निकाह न कोई कागज़ी कार्रवाही। बस रहने लगी। उसके आते ही रेडिओ मंडली पहले कुछ दिन सहमी रही। फिर इक्का दुक्का करके सभी लौटने लगे। न वो लाहौर जा कर गाती, न ही अब उसे लेकर कोई अटकल लगाता। बैठक की गहमा गहमी वैसी की वैसी।
बदरुन्निसा मिलने जुलने वालों के सामने बैठक में कभी न आती। चिक के उस पार गोपाल उससे कभी कभार बतिया लेता। बी॰ ए॰पास होने का नतीजा निकला तो गोपाल ने तफरीह के लिए काशमीर जाना चाहा। बदरुन्निसा ने अपना सोने का गुलूबंद तुड़वा कर पैसों का इंतजाम कर दिया तो गया वरना गोपाल के बाप ने तो मना ही कर दिया था।
"जवान जहान बेटा है। उसकी छोटी सी ख्वाहिश को क्यों मारते हो।" उसने गोपाल के बाप को समझाया।
गोपाल कश्मीर से लौटा तो बदरुन्निसा के लिए शाल लाया। सुर्ख रंग का शाल, उपर तिल्ले की आरी वाली कढ़ाई। बदरुन्निसा ने सँभाल कर रख दिया।
"तेरी दुल्हन को दूँगी।" उसने कहा।
लेकिन दुल्हन आई कहाँ? उससे पहिले तो बँटवारा आया। अपने बाप और छोटे भाई को इकबाल लिवाने आया और अपने साथ उधर ले गया। और बदरुन्निसा, वो ताहिरा की माँ बनने का इधर ही इंतजार करती रही।
बेकरी वाले बख्तियार की घरवाली ने सलाह दी।
"काफर की औलाद को इस मुसलमानों की गली में पैदा करोगी तो हम सब की खैर नहीं। दीवारें, छतें सभी जुड़ी हैं इस गली के घरों की। तुम्हारे घर में लगाई आग हम सब को जला देगी। लाहौर चली जाओ, बाद में कभी लौट आना।"
बदरुन्निसा ने छोटी बहिन जाहिदा को लेकर लाहौर जाने वाली खचाखच गाड़ी तो पकड़ी मगर उससे उतरी नहीं
२२ जुलाई १९६९ की शाम चित्रा ने ताहिरा और करन के लिए एक दावत रखी थी। रसल स्क्वेयर के इंस्टीट्यूट आफ कामनवेल्थ स्टडीज से हैडन सैंट्रल वापिस आने में करन को कुछ देर हो गई थी। घर पहुँचा तो ताहिरा खिड़की से झाँकती मिली। पूरा दिन उसने कई जोड़े उतारे पहने थे। उसका जी चाहता था कि वह ऊदे रंग का शरारा–कुरती पहने ताकि जाहिदा खाला के हाथ का बना महीन कढ़ाई वाला भारी दुपट्टा ओढ़ सके। लेकिन करन कह गया था कि अंडरग्राउंड में जाना है, इसलिए गरारा या शरारा पहन कर सीढ़ियाँ उतरना चढ़ना मुश्किल होगा।
काशनी चूड़ीदार कुरते के साथ मुकैश लगा दुपट्टा पहन जब ताहिरा करन के साथ घर की सीढ़ियों से उतरी तो बुढ़ऊ मकान मालिक दरवाज़े के साथ ही जुड़ कर खड़ा था।
"खूबसूरत, बहुत ही खूबसूरत।" उसने अपनी दो सूखी सी उँगलियों से अपने होंठ चूम कर कहा, "लेकिन नहाते वक्त इतनी देर तक गरम पानी मत चलाया करो, मेरा खर्चा बढ़ जाता है।"
ताहिरा को लगा जैसे उसके खूबसूरत लिबास के नीचे एक गीला तौलिया उसे लपेट में लिए है जिसे जितना भी निचोड़ लो, उसकी गीलाहट नहीं जाती। तौलिया सूखे तब न जब उसे कहीं खुली हवा या धूप में फैलाया जाये लेकिन यह तौलिया तो धोने के बाद भी साफ नहीं होता था। बस हर रोज इस्तेमाल के बाद और गीला होकर चिपट ही जाता था।
हैडन सैंट्रल की उबड़ खाबड़ गोरों की गली के दोनों तरफ बिल्कुल एक जैसे एक दूसरे से सटे हुए गिरते ढहते से दिखाई देने वाले मकानों में रहनेवाले भी ढीले ढाले थे। ताहिरा जब कभी सौदा सुल्फ लेने अकेले गली में उतरती, तो उसे नुक्कड़ तक पहुँच कर ही साँस में साँस आती। "यू स्टिंकिंग पाकीज", कह कर एक बार किसी फटे हुए कोट और पजामानुमा पैंट वाले बुढ्ढ़े ने उस पर थूक दिया था। तभी से वह गली में अकेले आने से कतराती थी।
आज भी करन की कुहनी थामे गली से निकल जाने की उसे बहुत जल्दी थी। लेकिन चित्रा के घर पहुँचने में ताहिरा और करन को करीबन दो घंटे लग गये। हैडन सैंट्रल से कैसिंगहन स्ट्रीट का पूरा रास्ता अंडरग्राउंड़ में पैंतीस–चालीस मिनट का था। ताहिरा चारिंग क्रॉस पर ही उतर कर विंडोशापिंग में ऐसी लगी कि चलती कम और रुकती ज़्यादा। रीजंट स्ट्रीट, ब्रांड स्ट्रीट, आक्सफ़ोर्ड स्ट्रीट की साफ सुथरी बंद दुकानों की सजी धजी विंडोज। न कीमत पूछने की जरूरत, न दाम चुकाने की कैफयत का एहसास। मन ही मन उसने बहुत सा सामान खरीदा और बड़े सलीके से एक खूबसूरत सा घर सजा लिया। एक ऐसा घर जिसमें वह जितनी देर चाहे नहा सकती थी। जहाँ कई खिड़कियाँ थीं, दरवाज़े थे और जिसके फर्श पर कोई फटी हुई दरी नहीं थी। बांड स्ट्रीट की एक शो विंडो में सजाये फर्नीचर को उसने एक इरानी कालीन के आस पास रखना शुरू ही किया था कि करन ने उसे एक हल्का सा धक्का देकर कहा,
"तुम्हारे चलनें की रफतार अगर यही रही तो दुनिया का पहला आदमी चाँद पर पहले उतरेगा और हम चित्रा के घर बाद में पहुँचेंगे।"
"आदमी को चाँद पर तो गई रात ढले उतरना है ना, अभी तो सात भी नहीं बजे।" ताहिरा ने एक बार फिर दामास्क के हलके तरबूजी रंग के गद्दों वाले सोफ़े को हसरत भरी नजरों से देखा।
"चित्रा बड़ी स्मार्ट लड़की है ताहिरा। हमें शादी की मुबारक देने के लिए उसने आज का ही दिन चुना, यह महज इत्तफ़ाक नहीं है। तुम देखना, इस एक बनाए गए इत्तफ़ाक से और कितने इत्तफ़ाक निकल आयेंगे।"
"जैसे?" ताहिरा की नजरें अब शो विंड़ो से टंगे एक भूरे बादामी लेडीज कोट पर थी।
"जैसे कि डेविड हमारी शादी की मुबारक का जाम उठाते हुए कहेगा, "अगर इन्सान चाँद पर उतर के वहाँ चहल कदमी कर सकता है, और एक काश्मीरी ब्राह्मण नौजवान एक पाकिस्तानी मुस्लिम लड़की से शादी कर सकता है, तो दुनिया में क्या नहीं हो सकता? अब तो हम यह उम्मीद भी कर सकते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब भारत और पाकिस्तान अपने आपसी भेद–भाव भुला कर तमाम दक्षिण एशिया की माली हालत सुधारने में साँझी जिम्मेदारी सँभाल लेंगे। "
ताहिरा ने शो विंडो से अपनी नजरें हटा ली। हल्की सी ताली बजाई और पूछा,
"यह तुम हमारे लिए दी जाने वाली दावत की बात कर रहे हो या फ़ेलोशिप खत्म होने पर किसी और ग्रांट के लिए अप्लाय करने का मजमून ढूँढ रहे हो।"
"मुझे डेविड की तरह किताबें लिखने पढ़ने का कोई शौक नहीं।"
"तो यहाँ क्यों आए थे?"
"इत्तफ़ाक से मौका मिला, आ गया वरना पापा जी के साथ काश्मीरी कालीन बेचता रहता।"
ताहिरा अब फिर रुक गई थी। औरतों के अंडरगार्मेंटस की एक बड़ी दुकान की शो विंडो के सामने। शीशे की बड़ी सी खिड़की में लेस और सिल्क की ब्रा और पैंटीज के बीच एक छोटे से कार्डबोर्ड के फट्टे पर काले रिबन से लिखा था "सेल्सगर्ल वान्टेड, फलेक्सिबल आवर्स।"
"देखो करन, लगता है मुझे भी इत्तफ़ाक से मौका मिल सकता है, मैं अप्लाय कर दूँ?"
"जी नहीं।"
"लेकिन क्यों?"
"इस बात पर जिरह करनें का यह कोई वक्त है क्या?" करन की आवाज में हल्की सी तल्ख़ी थी। "हमें पहले ही काफ़ी देर हो चुकी है।" फिर उसने जो ताहिरा का हाथ पकड़ कर चलना शुरू किया तो कैंसिगटन स्ट्रीट पहुँच कर ही रुका।
क्रमश:••••




Credit- abhivyakti-hindi

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