कोठेवाली -6



कोठेवाली -6



बदरीलाल के ब्याह से हफ्ता पहले उसके घरवालों ने अपनी इकलौती बेटी की कुढमाई कर दी थी। बाद में करते तो गली मोहल्ला यही कहता कि दान–दहेज और शगुन में जो बेटे को मिला, वही बेटी को दे दिया। पाँच छः महीने बाद बेटी के ब्याह में वही सब काम तो आना ही था। लेकिन पहले से ही क्यों शरीकों को अँगुली उठाने का मौका देना? रिश्तेदारों से भरा शादी का घर था। औरतें भाई के लिए घोड़ियाँ और बहिन के लिए सुहाग गाती फिरती थीं। सत्रह बरस की गोरी चिट्टी, छरहरी लाजो के न पाँव थमते थे न गला रूकता था। रेशम की मुलायम कमीज उसके ठसे बदन से लिपट कर तन तन जाती। हवाई ननून की बाँकड़ी लगी चुन्नी उसके ठुमकते कंधों से सरक–सरक पड़ती। किंगरी लगे पौंचों वाली घेरेदार सलवार की उठती गिरती सलवटे थिरक–थिरक लहरातीं।
ताइयों, चाचियों, फूफियों, मासियों को हाथ पकड़–पकड़ नचाती लाजो तिमंज़िले घर के दोनों तल्लों पर कूद फाँद करती और चौबारी छत पर खड़ी होकर पड़ोसनों से गप्प मारती.। एक ही साँस में घर के बेटे और जमाई को नाप तोल देती और फिर अपने पे नाज करती।
"किक्कली कलीर दी, पग्ग मेरे वीर दी
दुपट्टा मेरे भाई दा, ते फिट्टे मुँह जवाई दा?
गई साँ मैं गंगा, चढ़ा ल्याई वंगा
असमानी मेरा घघरा।
मैं ऐस किल्ली टंगां
नी मैं ओस किल्ली टंगां।"
जब अपनी शादी के दिन पास आए तो रोज नया जोड़ा पहन कर घंटों आइना देखती और अपनी आँखों का काजल अपने ही कान के पीछे टिप्पी बनाकर लगाती। घर की औरतों ने बदरीलाल की नई ब्याहता को हँस कर समझाया।
"अपनी चुलबुली ज़ुबान नूँ सँभाल के रख्खीं वौटिये नईं ते फेरेयाँ बैठी नच्चन वास्ते उठ्ठ खलोवेगी।"
फेरों पर तो लाजो दुबकी सी गुड़िया बनी रही। ससुराल जाकर जब अपने गभरू जवान हवालदार लाड़े के साथ लौटी तो हँसते–हँसते दुहरी हो रही थी। कोने में ले जाकर घंटों बदरीलाल की बीवी से खुसरपुसर करती रही।
"मैं की कहाँ भरजाई? जिदे लड़ लग्गियाँ औ ते बत्ती बुझए बिना नेड़े नई आंदा। पर दो दो मुश्टंडे दयोर सारा दिन वेढ़े विच्च डंड बैठका कडदे रहंदे ने।"
लाजो के शांत तबीयत दूल्हा को न सिगरेट शराब का ऐब था, न जुए की लत, न शाम को अड्डेबाज़ी की आदत। नौकरी से निबट कर सीधा घर आता, खाना खाता और फिर चौबारे जा अकेले कमरे की बत्ती बुझाकर बदन कसमसाता। जब तक लाजो रसोई सँभाल कर ऊपर पहुँचती, उसके मरद की हर नस ऐसी तनी मिलती जैसे किसी तेज रफ्तार घोड़ी को काबू में लाने वाली चाबुक। महीने भर में ही छरहरी लाजो गदरा गई। चेहरा ऐसा चमका जैसे पालिशी हो, भूरी नीली आँखों में खुमारी का काजल जैसे कई रातों की अनींद्री हों। मायके लौटी तो ठुमकती कम, अलसाती ज्यादा।
बदरीलाल की बीवी ने छेड़ा तो भरपूर अँगड़ाई लेकर बोली,
"अद्दी रात मार पई,
कुट्ट सुट्टियाँ मलूक जहियाँ,
नाले सोहना मोती चुगदा
ते नाले पुच्छदा,
कित्थे, कित्थे लग्गियाँ।"



पाँच बरसों में तीन बार लाजो मायके जच्चगी के लिए आई। भरा पूरा बदन लिए आती और गोल गोल मटोल बच्चा गोद में लेकर लौट जाती। गदराऐ बदन के उतार चढ़ाव फिर वैसे के वैसे।
"क्यों नी लाजो? औरतें तो एक बच्चे के बाद ही चौड़ी हो जाती है। तू क्या सारी उमर ऐसी ही छमकछल्लो बनी रहेगी।"
"आहो भरजाई, कमर दा कमरा बन गया तो हवालदार जी को उपर नीचे चढ़ने उतरने में टंटा होगा। मैंने तो अपनी सास को कपड़े धोने से भी छुट्टी दे दी है। आप बैठ के रगड़ा सोटा मारती हूँ और खड़ी होकर एक एक कपड़ा बालटी से निचोड़ कर निकालती हूँ। कपड़े साफ, सास खुश और मेरी कमर वैसी की वैसी।"
हवलदारनी से थानेदारनी बनते ही लाजो की जुबान भी बदलने लगी थी। पुलिस महकमे के कारनामों के किस्से सुनाती। फरमाबरदारी और हरामजदगी जैसे अलफ़ाज इस्तेमाल करती। घर से बाहर निकलते थानेदार साहेब की पगड़ी और फीती की नजर उतारती। रात को दूध का गिलास देती तो बादाम डाल कर।
एक रात थानेदार ने दूध पीने से इंकार कर दिया। गले में दर्द था, सुबह तक हलक के उपर गिलटी फूल आई। ऐसी चारपाई पकड़ी कि दस दिन में बिना एक भी बात बोले सदा के लिए सो गया। उसकी स्यापा करती माँ ने अपनी छाती हाथों से पीटी और लाजो का माथा हथौड़े से तोड़ा।
"नचोड़ लया नी तूँ मेरे शेर जये पुत्तर नूँ। खसमखानिऐ हर वेले ओनू चमुट्टी रहंदी सैं। अपनी उमर खा के जांदा ते अपने पुत्तरा दी कमाई वी खांदा ते सानू वी अपनी पेंशन ख्वांदा। दफ़ा हो जा, साड़िया नजरा तो। तैनू वेख के तेरे हट्टे कट्टे जिसम विच मैनू अपने पुत्तर दा निच्चुड़या खून दिसदा ऐ।"
तीनों बेटों को लेकर लाजो मायके लौटी तो अपना जिस्म हर वक्त कस कर लपेटे रखती। बार बार नहाती जैसे कोई अनछूटा दाग धोती हो। छुआछूत करती। गदरया बदन पहला ढलका, फिर सलवटों से भरकर रूखा बबूल हो गया। न कोई उसे छुए, न करीब आये। ••
गंदे नाले के पार रंगरेजा बस्ती में बदरीलाल के बार–बार जाने की बात उड़ते–उड़ते सबसे पहले लाजो ने सुनी। बेकरी वाले बख्तियार की घरवाली से।
"रब्ब झूठ न बुलावाये बाजी।" जून की तपती दुपहरी में खस की पक्खी की हवा अपने चेहरे पर झुलाते हुए सिर हिला–हिला कर कहा उसने, "सुना है बात हँसी मखौल से शुरू हो कर बड़ी दूर चली गई है। अब तो दो साल ऊपर ही होने को आए। बिना नागा हर इतवार आपका भाई खुले आम गंदा नाला पार करके पहुँच जाता है वहाँ।"
लाजो को लगा कि उसका भाई कोई इंसान नहीं बल्कि किसी बड़े से पेड़ की कटी हुई टहनी है जिसे बख्तियार की घरवाली ढक्की दरवाजा गली से घसीट कर गंदे नाले के पार फेंक आई है। वह हड़बड़ा कर उठी और मुड़े तुड़े कपड़ों के ऊपर चादर से मुँह सिर लपेट कर शिखर दुपहरी में गली पकड़ ली। नुक्कड़ वाले मकान से बदरीलाल के घर हाँफती हुई पहुँची और सीधे बैठक मे जा घुसी। उसे देखते ही बैठक में उकडू बैठे दो तीन मिलनेवाले उठ खड़े हुए। लाजो उनके ज़ीना उतरने तक चुप रही।
फिर उसने अपनी चादर उतारकर तख्तपोश पर फेंकी और आरामकुर्सी से टिके बदरीलाल के सामने खड़ी होकर खुरदरी आवाज में पूछा।
"ये गंदे नाले पार वाली मरासन तेरी क्या लगती है भापा?"



बदरीलाल ने हुक्के की नाल अपने मुँह की तरफ खींची तो लाजो ने हुक्का अपने पैर से दूर सरका दिया। एक बार बकना शुरू हो गई तो बस नारियल की सूखी मूँज से जैसे गरम राख को जूठे पतीलों के काले तलों पर रगड़ती ही गई। बदरीलाल ने अपना चेहरा एक दिन पुराने अखबार की सुर्खियों में छुपा लिया। सन १९४२ के "हिन्दोस्तान छोड़ो" इन्कलाब का सनसनीखेज ब्योरा और हिटलर जैसों से बरतानिया सरकार की टक्कर लेने का हौसला अखबार के पहले ही सफ़े पर नुमाया था। अखबार कुछ कह रहा था, लाजो कुछ पढ़ रही थी। बोलते बोलते जब वह हाँफने लगी तो कोई भी लफ्ज़ उसका पूरा नहीं हुआ। बदरीलाल ने अखबार एक तरफ रख दिया। गीले कपड़े से लिपटी सुराही के पास ही रखे ताँबे के गिलास में पानी उँड़ेला और बहिन को पकड़ा दिया।
गटागट गिलास खाली कर लाजो बदरीलाल की आरामकुरसी से सिर टिका कर बैठ गई। भाई के बाजू पर हाथ रख कर जरा नरम आवाज में बोली, "गल्ली–मोहल्ला, पुरखे–शरीक तेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, पर क्या तुझे भरजाई का भी कोई लिहाज नहीं? कुछ तो बोल भापा?"
बदरीलाल नें अपना एक हाथ लाजो के सिर पर रखकर बस एक बार उसके रूखे बालों को सहलाया और लंबी साँस लेकर बोला, "उसी का तो लिहाज है। वरना मैं बदरुन्निसा को मिलने उसके घर नहीं जाता। यहाँ इसी घर में ला कर रखता।"
लाजो तमक कर उठी और दोनो हाथों से अपना माथा पीट लिया। बीच बैठक में खड़ी होकर ज़ोर ज़ोर से स्यापा करने लगी-"तू सहक सहक के मरेगा भापा। ऐसी मौत मरेगा कि कोई पानी देने वाला न होगा। अपने हिस्से का तेरा स्यापा मैं आज ही कर लेती हूँ।"
बदरीलाल बैठक से निकल कर नीचे जाने वाली सीढ़ियों से उतर गया। उसके जाने के बाद भी लाजो अपने आप को पीटती ही रही। जब बदरीलाल की बीवी ने आकर उसका हाथ पकड़ा तो उसे अपने से लिपटा कर फफक उठी।
"मैं तो उजड़ी ही थी भरजाई क्योंकि थानेदार को उपर से बुलावा आ गया। पर तू मेरी बदनसीब शहजादी, तू तो आदमी के रहते उजड़ गई।"
बदरीलाल की बीवी गले से लिपटी ननद को बाहों के घेरे में लिए खामोशी से देर तक सुबकती रही। पीठ पर हाथ रख अपने से अलग किया तो तख्तपोश तक बाँह पकड़ कर ले गई। पास बैठा कर उसी की मैली कुचैली चुन्नी से पहले उसके आँसू पोंछे, फिर अपने।
"तूने सुना न लाजो, जो तेरे भापे ने कहा। जब तक मैं इस घर में हूँ, उसको मेरा लिहाज है। पुरखों के इस घर को अगर दूसरी से बचाना है तो मुझे यहाँ रहना ही पड़ेगा। इस घर की राक्खी करूँगी। यहाँ से निकलूँगी ही नहीं। तेरे घर भी नहीं आऊँगी, तू ही आती जाती रहना।"
"तू मुझ रब्ब की मारी का आसरा है भरजाई। पर मैं करमसड़ी तुझे क्या हौसला दूँगी। सर के बल चल कर आऊँगी। पर तू तो फिर भी इकल्ली की इकल्ली। तेरे आँखों के सामने घूमे फिरेगा भापा और तू उसके पास न फटकेगी। रब्ब की दी बदाँ सहले, पर अपनी मर्ज़ी की मार तुझे बिल्कुल इकल्ला कर देगी।"
"तू ही तो कहती है न लाजो, बेटों की माँएँ कभी अकेली नहीं होतीं।"
"बेटों को बाप की करतूत का पता है क्या?"
बदरीलाल की बीवी ने लंबी उसाँस ली।
"गोपाल तो मस्त मौला है। हन्ने बन्ने दोनों रख लेता है। इकबाल का कुछ पता नहीं। कब क्या कर बैठे?
साल भर पहले बी॰ ए॰ पास करके जब इकबाल बिजली पानी के महकमे में सरकारी मुलाजम हो गया तो बदरीलाल नें सारी गली में खालिस घी के केसरी लड्डू बाँटे थे। रात को जब कभी बाप बेटे इकठ्ठे रसोई में खाने आते तो अपनी थाली में ताजा फुलाया फुलका रखती हुई बीवी का हाथ रोक कर बदरीलाल कहता,
"पहले इकबाल को दे भलीमानस। सारा दिन काम करता है। गुपाल की तरह चटखोरा नहीं कि बाहर खा पीकर घर आ जाए।"
कई महीनों से इकबाल बाप के सामने पड़ने से कतरा रहा था। अगर कमी बाप–बेटा इकठ्ठे रसोई में खाने बैठ भी जाते तो दो फुलके खाकर ही इकबाल पीढ़ी सरका कर उठ खड़ा होता।
एक दिन बिना कुछ कहे सुने बिस्तर बोरिया बाँधते हुए माँ से बोला,
"भाबो मेरा तबादला जेहलम हो गया है। परसों चला जाऊँगा।"
"अपने भाईया जी से कह कर तबादला रूकवा ले पुत्तर। मेरी आँखों के सामने रह।" बदरीलाल की बीवी ने कहा।
"भाइये का नाम न ले भाबो। तू भी चल मेरे साथ। परसों नहीं चलती तो एक हफ्ता बाद आकर ले जाऊँगा। रहनें का इंतजाम करते ही आऊँगा। तू तैयार रहना।"
बदरीलाल की बीवी ने बेटे के कपड़े सँभालने में हाथ बँटाया और बोली,
"जरूर आऊँगी पुत्तर। जब तेरा ब्याह हो जाएगा। फिर तू कमाने जाना और हम सास–बहू रज्ज रज्ज के तेरी कमाई की बरकतें देखेंगी।"
"इस घर में कोई भलामानस तो अब अपनी बेटी देने से रहा।" इकबाल ने 'थूँ' कह कर कहा, "पर तेरे लिहाज से कोई राज़ी होता हो तो जल्दी ही बहू ले आ।"
"जरूर ले आऊँगी। पर तू कब आएगा? परसों का गया क्या अपनी लाड़ी लेने ही आएगा?
"बड़ी जल्दी आऊँगा भाबो, आता रहूँगा लेकिन इस घर में नहीं। मुझे इस घर में अब भाइया के कपड़ों से गंदे नाले की मुश्क आती है।"
•••
बदरीलाल ने जब पहली बार गंदा नाला पार किया तो उसे नाक पर रूमाल रखना पड़ा था। नाले के उस पार भी एक सपाट मैदान था जिसे हाजतमंद बेरोक टोक खुले आम इस्तेमाल करते थे। कुछ ही कदम चल कर बदरीलाल शशोपंज मे आ गया। अपने कदमों पर नजर रखने के लिए गरदन झुकाकर चलता तो खाया पीया मुँह को आता। बिना नीचे देखे कदम उठाता तो किसी सूखी या लिजलिजी ढेरी पर पाँव पड़ने का अंदेशा। ठिठक गया वो। आगे पीछे दोनो तरफ नजर डाली। मैदान के अगले छोर तक पहुँचने का रास्ता कम और लौटने का ज्यादा लगा। नाक मुँह ढक कर वह आगे बढ़ा। मैदान पार किया तो एक पगडंडी के मुहाने पर खड़ा था।
पगडंडी के एक तरफ दूर दूर तक काली सलेटी, गेरूआ, गाचनी माटी के बरतन खिलौने धूप सेक रहे थे। जमीन पर मुँह औंधाए छोटे बड़े मटके। गर्दन ऊँची उठाये एकमुठी, दोमुठी नक्काशी सुराहियाँ। मैदान की धूल से जरा सा सिर निकाल कर झाँकते हुए चपटे कसोटे। आजू बाजू तैनात लंबे चौड़े गमले। चौमुखे दीये और खील फुलियो की हट्टियाँ। हौदे वाले हाथी। सवार समेत घोड़े। और इस भरपूर बेजान सी दुनिया के उपर उमस भरी दुपहरी में भूले भटके हवा के झोंके को तरसती गुँधी गुँधाई माटी की महक।
कहीं से जरा भी आवारा बयार की लय फूँक उठती तो चिलमों और मटकी की महकती साँसें पगड़ंडी के दूसरे किनारे ठुमक कर पहुँच जातीं। वहाँ लंबे बाँसों से तान कर बँधी हुई रस्सियों में घिरा रंगों का डेरा था। कड़क कलफ और अकडू अबरक से तने हुए ऊदे, नीले, नसवारी, केसरी और गुलाबी साफ़े थे। फरोज़ी, बदली, फलसई, अंगूरी, जहरमोरे और चंपई दुपट्टे हल्की सी माँड ओढ़े, तने हुए साफ़ों से अपनी दूरी बनाए थे। साफ़ों और दुपट्टों की निगरानी में चुन्नटों से सिमटी सतरंगी लहरियों वाली चुन्नियाँ थीं।



एक ही पगडंड़ी के इस तरफ महक का गुबार और उस तरफ रंगों की शोखी।
रंगरेजा बस्ती पगडंडी का आखरी पड़ाव थी।
उसके बाद कुम्हारी टीले तक जाने के लिए कोई एक रास्ता नहीं था। जहाँ कदम मुड़े वहीं रहगुजर निकल आती। लिपेपुते बेतरतीब बिखरे घरों के जमघट में न कोई आगा था न पीछा। किसी के आगे तंदूर लगा सहन तो किसी का आगा मवेशियों का तबेला। किसी के बाज़ू में चारा काटने की रहट तो किसी के साथ जुड़ी दाने भुनाने की भट्टी। कुम्हारी टीले वाले पानी लेने रंगरेजा बस्ती के कुएँ पर आते। बस्ती वालों को अपने भाँडे–टींडे कलई करवाने टीले पर जाना होता। इतनी शादियाँ हुई थीं बस्ती टीले में कि कोई भी किसी की कुड़मों का पिंड कह देता।
पगडंड़ी पार कर के रंगरेजा बस्ती में जाते बदरीलाल के कदम रूक गए। एक खटका सा उठा। न जाने कौन छींटा कसी कर दे? कहाँ से आकर कोई कीचड़ उछाल दे? बचे खुचे रंगों के घोल की कोई कमी तो थी बस्तीवालों को।
गुंधी कीचड़ में सनी उँगली छिटक देने में क्या वक्त लग सकता था टीले वालों को?
लेकिन बस्ती टीले वालों की अपनी ही तहज़ीब थी। वह कीचड़ रौंधते थे तो ओसारे के चाक पर चढ़ा कर सँवारने के लिए। माटी का दोष तब न जब ओसारे से निकले बरतन खिलौने में तरेड़ मिले? वहा रंग घोले जाते थे अलग थलग रख कर पक्के करने के लिए। रंगों में खोट तब जब ललारी के हाथ से यूँ ही छिटक कर एक बूँद किसी दूसरे रंग के कपड़े पर जा गिरे? झक्ख सफ़ेदी पर दाग लगा दे।
•••
कुम्हारन माँ और रंगरेजा बाप की बेटी थी बदरुन्निसा। ओसारे में चाक पर चढ़ी माटी को उसने भी रौंधा था। माँड़ पकाते कढ़ाहों के नीचे सरकंडों की आग ऊँची करने के लिए धुएँ में उसने भी फूँकें मारी थीं। लेकिन उसका सा रूँधा और भर्राया गला और किसी का न हुआ। मुलठ्ठी और शहद की घुट्टी चाटी। बनफशे का काढ़ा पीया। गले में तरावट आई। लेकिन आवाज का धुँधलका न छूटा। बोल निकले तो गाढ़े। बातें बनी तो साज और सुर साधे तो तरन्नुम। पके मटकों पर मेहँदी लगे हाथों से थाप देकर गाती बिलकीस बस्ती टीले के हर मौके का बेज़ोड़ गहना बन गई।
टीले वालों के एक ब्याह में लाहौर से आए बदरू मामा बिलकीस को दो दिन के लिए अपने साथ ले गए। लौटे तो बदरुन्निसा को साथ लेकर। रेडिओ वालों ने बदरू मामा के नाम से जुड़ता नया नाम दे दिया बिलकीस को। साथ ही हर शनिवार उस की गायी एक गजल रेडिओ से सुनाने की दावत। गजलों की पसंद रेडिओ वालों की, आवाज बदरुन्निसा की। वह महीने में एक या दो बार लाहौर जाकर गजलें रिकार्ड करवा आती। बुरका उसका। आने जाने का रिक्शा और पसंजर गाड़ी का किराया, खर्चे पानी का बंदोबस्त, सब रेडिओ वालों का। बस आवाज बदरुन्निसा की।
••
"आपको मेरी आवाज यहाँ खींच लाई थी न मैं गाना बंद कर दूँ तो?" बदरुन्निसा ने पूछा।
अपने होठों से बदरुन्निसा के कुरते के बटन खोलता बदरीलाल कुछ नहीं बोला। उस लमहा सारी काईनात में उसके अहसास का एक ही मरकज था। वहाँ पहुँचने से पहले अगर वह साँस भी खींच कर ले लेता तो पूरी काईनात बिखर जाती। बस उसकी रंगों का पुरज़ोर उफान हर बाज़ू में आठ आठ हाथ बनकर बदरुन्निसा के गठीले बदन का हर उतार चढ़ाव सहलाता रहा, कचोटता रहा।
"यहाँ भी," बदरुन्निसा ने सिमट कर कहा।
"वहाँ भी," उसने बिखर कर खैरात माँगी।
"हाय अल्लाह, मैं मरी। मैं गई।" वह सिहर सिहर उठी।
"रूक जाइए न," उसने बदरीलाल की ढ़ीली पड़ती गिरफ्त को अपनी बाहों के घेरे में कसना चाहा।
"बस अब नहीं, कपड़े गीले हो जाते हैं।"
"घर में नहीं होते क्या?"
"वहाँ बदलने का इंतजाम है।"
"यहाँ भी हो सकता है"
"यह मेरा घर नहीं है।"
बदरुन्निसा नें उठ कर कोठरी के अंदर से लगी साँकल खोल दी। बदरीलाल को तख्तपोश पर बैठने के लिए गाव तकिया दिया। और मुंज के कानो का एक मोढ़ा खींच कर उससे कुछ दूर जा बैठी।
"आपकी घरवाली का नाम क्या है?"
"चाँद रानी।"
"बहुत खूबसूरत है?"
"हाँ।"
"आप से क्या क्या बातें करती है?"
"भाजी तरकारी की। नाते–रिश्तेदारों की।"
"और आप?"
"मैं सुन लेता हूँ।" बदरीलाल ने अब जूते पहनने शुरू कर दिये थे।
"मैं आप से बात करूँ?"
उठते उठते बदरीलाल बैठ गया। सिर से हुंकारा कर भर कर बोला,
"करो।"
"आपको पता है कि कचनार के फूल की कली उबाल कर डालने से घुले हुए रंग गाढ़े हो जाते हैं। लेकिन कचनार की डंडी की एक बूँद भी रंगे कपड़ों पर पड़ जाए तो दाग लग जाता है, कभी नहीं छूटता। कनेर के फूलों से . . ."
बदरीलाल अब सहन के दरवाज़े की ओर मुँह करके खड़ा था। बदरुन्निसा नें बढ़ कर बाहर के दरवाज़े की साँकल खोल दी। दहलीज के पार खड़ी होकर अपनी किंगरी वाली फरोज़ी चुन्नी का पल्ला मरोड़ती हुई बोली,
"अल्लाह मियाँ अगर हफ्ते में दो इतवार बना देता तो।"
क्रमश:•••••••





Credit- abhivyakti-hindi

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