चुड़ैल-2
रात गहराती जा रही थी। सड़क कब से सुनसान पड़ी थी। एक पीपल का पेड़ थाजो बड़े
से एक चबूतरे से मढ़ा था। उस चबूतरे पर हम तीन महिलाएं, अपनी ही दुनिया में
मस्*त बस हँसती जा रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे यह हँसी आज ही परवान चढ़
जाएगी। एक महिला कुछ बात कहती और शेष दो ठहाका लगा देती। तभी धीरे से दबे
पाँव कोई हमारे पास आकर सहमा सा खड़ा हो गया। मेरी निगाहे उस पर टिक गयीं।
डर के मारे उसके बोल नहीं फूट रहे थे। महिलाओं ने उसकी हालात देखी और हँसी
का फव्*वारा फूट चला। पलक झपकते ही माजरा समझ आ गया। लड़का डरा हुआ था, इतनी
रात को पीपल के पेड़ के नीचे अट्टहास करती महिलाओं को देखकर। मैंने बड़ी
मुश्किल से अपनी हँसी को दबाया और बोली कि डरो मत, हम केवल तीन नहीं हैं,
हमारे तीन साथी अन्*दर हैं। लड़केका डर समाप्*त होने के स्*थान पर बढ़ गया,
वह वहाँ से खिसक लिया और सड़क किनारे अपनी मोटर-सायकिल और अपने दोस्*त के
साथ जा खड़ा हुआ। तभी एक और मोटर-सायकिल आकर रुकी, उन चारों ने हम पर टार्च
का प्रकाश डाला। हम फिर हँस दिए। वे सरपट भाग गए।
यह कोई जासूसी उपन्*यास की कथा नहीं हैं, अपितु मेरी आप-बीती घटना है। कई वर्ष हो गए इस घटना को घटे। हम तीन दम्*पत्ति बीकानेर से उदयपुर के लिए कोंटेसा कार में शाम को रवाना हुए। शहर से बाहर निकलते-निकलते शाम ढलने लगी थी। रास्*ता बहुत लम्*बा और एकान्*त वाला था। लेकिन डर कहीं नहीं था। अभी कुछ ही देर चले थे कि गाड़ी ने जवाब दे दिया। तब तक रात भी घिर आयी थी। बस एक काली टूटी-फूटी सी सड़क थी और दोनों तरफ रेत के टीले। मेरा बचपन रेत के टीलों के बीच बीता हैतो उन्*हें देखते ही मन मचलने लगा। जैसे ही हमें सुनायी दिया कि गाड़ी खराब हो गयी है हम तीनों महिलाएं दौड़कर टीलों पर जा बैठे।कुछ देर बाद ही गाँव के दो-चार लोग भी एकत्र हो गए और हमें कहा गया कि गाड़ी को नजदीक के गाँव मेंले जाना पड़ेगा। ह*में एक ट्रेक्*टर पर बैठने को कहा गया। जीवन में कभी भी ट्रेक्*टर पर नहीं बैठे थे तो बड़ा डर लगा, लेकिन जैसे-तैसे लटकते-पड़ते बैठकर हम गाँव तक जा पहुंचे। गाड़ी भी ठीक हो गयी और हम अपने सफर पर चल दिए।
लेकिन यह क्*या, अभी एकाध घण्*टे भी गाडी नहीं चली थी कि वो फिर बोल गयी। अब क्*या किया जाए। रात काफी हो चली थी। कोई भी व्*यक्ति दिखायी नहीं दे रहा था और सड़क एकदम सुनसान थी। बहुत देर इंतजारकरने के बाद एक व्*यक्ति दिखायी दिया और उसने बताया कि पास ही एक गेराज है, वहाँ गाडी को ले जाओ। हमने जैसे-तैसे गाडी को गेराज तकपहुंचाया। तीनों पुरुष गाडी के साथ गेराज में चले गए और हम महिलाओं ने अपना अड्डा उस पीपल के पेड़ के नीचे जमा लिया। मेरी आदत गप्*प मारने की कुछ ज्*यादा ही है तो हम तो शुरू हो गए। समय पंख लगाकर उड़ने लगा और रात कब मध्*य-रात्रि में बदल गयी पता हीनहीं चला। और वे बेचारे लड़के हमें चुडै़ल समझकर डरकर भाग गए। शायद आज भी उस गाँव में हमारा खौफमौजूद हो?
रात बारह बजे बाद हमारे साथी गाडी को दुरस्*त करके बाहर निकले, हमने तब खाना खाया और फिर हमारी छकड़ा गाडी चल दी। लेकिन उस गाडी को नहीं चलना था तो नहीं चली। कुछ दूर जाकर ही फिर अड़ गयी।रात के दो बजे ह*म कहीं आसरा ढूंढरहे थे, देखा सामने एक स्*कूल खड़ाहै। खुशी-खुशी दरवाजे तक गए लेकिन वहाँ ताला लगा था। अन्*दर कैसे जाएं? लेकिन एक टीले ने हमारी मदद की। वो टीला स्*कूल की दीवार के सहारे अपना वजूद लिए खड़ा था। हम उस पर चढ़ गए और दीवार कूद गए। गाडी में एक दरी भी मिल गयी और हम स्*कूल के प्रांगण को सुख-शैय्*या समझकर गहरी नींद में सो गए। जैसे ही सूरज ने दस्*तक दी, हमारा एकान्*त भाग गया। सामने ही चाय की दुकान दिखायी दे गयी। हम सबने चाय पी औरगाडी को धक्*का लगाकर चलाने का प्रयास किया। गाडी चल दी, लेकिन जैसे ही ब्रेक लगाए वो फिर बन्*द हो गयी। हमने गाँव वालों से प्रार्थना की कि आप धक्*का लगा दीजिए, उन्*होंने धक्*का लगा दिया और गाडी भर्र से चल दी। गाडीतो लोगों के धक्*के से चल दी लेकिन चाय वाले को पैसा तो दिया ही नहीं। अब क्*या करें? गाडी रोक नहीं सकते। भगवान को उत्तरदायी बनाकर हम निश्चिंतता से आगे चल दिए। परीक्षा अभी बाकी थी। उस साल उस रेगिस्*तान में भी बाढ़ आयी थी तो सड़के तो माशाअल्*लाह थी ही, साथ में पानी के साथ नदी के गोल-गोल पत्*थर भी रास्*ते में आ गए थे। इतने में हीभेड़-बकरियों के झुण्*ड ने हमारी गाडी को फिर रोक दिया। किससे धक्*का लगवाएं? अब पुरुषों ने स्*वयं ही धक्*का लगाया और दौड़करगाडी में बैठ गए। ऐसी प्रक्रिया कई बार करनी पड़ी और गाडी के फाटक भी हाथ में आने को तैयार हो गए। लेकिन विकट स्थिति तो तब पैदा हुई जब एक सूखी नदी रास्*ते में आगयी। उसके गोल-गोल पत्*थरों से गाडी फिर रुक गयी। इस बार बोनट खोलकर जाँच कर ली गयी और धक्*का लगाकर जैसे ही गाडी ने चार कदम बढ़ाए कि विपक्ष की तरह बोनट खुलकर तन गया। अब गाडी को रोके तोमुश्किल और ना रोके तो बोनट को कैसे नीचे बिठाए? एक साथी ने क्*लच पर पैर रखा और एक साथी ने अपनी लम्*बी टांगों को खिड़की से बाहर निकाला और जोर से पैर को बोनट पर पटक दिया। बोनट बन्*द हो गया और गाडी भी नहीं रुकी। खुशी की लहर दौड गयी। दिन होते-होते इसी प्रकार गाडी से जूझते हुए हम नागौर पहुंचे और वहाँ उसे पक्*कीतौर पर ठीक कराने का प्रण लिया। कई घण्*टे लगे, लगे तो लगे, लेकिन रात होने से पहले हम कम से कम जोधपुर तो पहुंच जाएं। विधाता नेचाय की कीमत वसूलने की ठान रखी थी। मण्*डोर पहुंचते-पहुंचते तोहमारी गाडी ऐसी हो गयी थी कि उसे एक थैले में भरकर ले जाया जाए। चारों फाटक लटक चुके थे। मण्*डोरपहुंचकर तो गाडी ने बिल्*कुल ही हथियार डाल दिए। अब तो उसे दूसरी गाडी के सहारे खेचने के सिवाय हमारे पास कोई चारा नहीं था। जैसे-तैसे जोधपुर पहुंचे। एक मित्र के यहाँ गए, वे भी अचानक ही छ: लोगों को आया देख घबरा गए।
उनकी पत्*नी ने हँसकर स्*वागत तोकिया लेकिन दबे स्*वर में बता भी दिया कि आज ही नौकर गाँव गया है। इतने लम्*बे सफर के बाद भी हमारी जिन्*दादिली में कोई कमी नहीं आयी थी। हमने उनसे हँसकर कहा कि आप चिन्*ता ना करें। आपकी सहायताके लिए तीन पढ़ी-लिखी शहरी बाइयांआयी हैं। सब काम फटाफट निबटा देंगी। वे भी दिल खोलकर हँस दी औरहमें बड़े ही प्*यार से रात का खाना खिलाया। हमने बस की टिकट खरीदी और उदयपुर के लिए रवाना हो गए। जिन मित्र की गाडी थी, उन्*हें अकेला छोड़कर। हाँ चाय वाले के पैसे मेरे पतिदेव ने आखिर भेज ही दिए। उनका एक रोगी उसी मार्ग पर ट्रक चलाता था तो उसने वह जगह पहचान ली और बाकायदा पैसे उस चाय वाले तक जा पहुंचे
यह कोई जासूसी उपन्*यास की कथा नहीं हैं, अपितु मेरी आप-बीती घटना है। कई वर्ष हो गए इस घटना को घटे। हम तीन दम्*पत्ति बीकानेर से उदयपुर के लिए कोंटेसा कार में शाम को रवाना हुए। शहर से बाहर निकलते-निकलते शाम ढलने लगी थी। रास्*ता बहुत लम्*बा और एकान्*त वाला था। लेकिन डर कहीं नहीं था। अभी कुछ ही देर चले थे कि गाड़ी ने जवाब दे दिया। तब तक रात भी घिर आयी थी। बस एक काली टूटी-फूटी सी सड़क थी और दोनों तरफ रेत के टीले। मेरा बचपन रेत के टीलों के बीच बीता हैतो उन्*हें देखते ही मन मचलने लगा। जैसे ही हमें सुनायी दिया कि गाड़ी खराब हो गयी है हम तीनों महिलाएं दौड़कर टीलों पर जा बैठे।कुछ देर बाद ही गाँव के दो-चार लोग भी एकत्र हो गए और हमें कहा गया कि गाड़ी को नजदीक के गाँव मेंले जाना पड़ेगा। ह*में एक ट्रेक्*टर पर बैठने को कहा गया। जीवन में कभी भी ट्रेक्*टर पर नहीं बैठे थे तो बड़ा डर लगा, लेकिन जैसे-तैसे लटकते-पड़ते बैठकर हम गाँव तक जा पहुंचे। गाड़ी भी ठीक हो गयी और हम अपने सफर पर चल दिए।
लेकिन यह क्*या, अभी एकाध घण्*टे भी गाडी नहीं चली थी कि वो फिर बोल गयी। अब क्*या किया जाए। रात काफी हो चली थी। कोई भी व्*यक्ति दिखायी नहीं दे रहा था और सड़क एकदम सुनसान थी। बहुत देर इंतजारकरने के बाद एक व्*यक्ति दिखायी दिया और उसने बताया कि पास ही एक गेराज है, वहाँ गाडी को ले जाओ। हमने जैसे-तैसे गाडी को गेराज तकपहुंचाया। तीनों पुरुष गाडी के साथ गेराज में चले गए और हम महिलाओं ने अपना अड्डा उस पीपल के पेड़ के नीचे जमा लिया। मेरी आदत गप्*प मारने की कुछ ज्*यादा ही है तो हम तो शुरू हो गए। समय पंख लगाकर उड़ने लगा और रात कब मध्*य-रात्रि में बदल गयी पता हीनहीं चला। और वे बेचारे लड़के हमें चुडै़ल समझकर डरकर भाग गए। शायद आज भी उस गाँव में हमारा खौफमौजूद हो?
रात बारह बजे बाद हमारे साथी गाडी को दुरस्*त करके बाहर निकले, हमने तब खाना खाया और फिर हमारी छकड़ा गाडी चल दी। लेकिन उस गाडी को नहीं चलना था तो नहीं चली। कुछ दूर जाकर ही फिर अड़ गयी।रात के दो बजे ह*म कहीं आसरा ढूंढरहे थे, देखा सामने एक स्*कूल खड़ाहै। खुशी-खुशी दरवाजे तक गए लेकिन वहाँ ताला लगा था। अन्*दर कैसे जाएं? लेकिन एक टीले ने हमारी मदद की। वो टीला स्*कूल की दीवार के सहारे अपना वजूद लिए खड़ा था। हम उस पर चढ़ गए और दीवार कूद गए। गाडी में एक दरी भी मिल गयी और हम स्*कूल के प्रांगण को सुख-शैय्*या समझकर गहरी नींद में सो गए। जैसे ही सूरज ने दस्*तक दी, हमारा एकान्*त भाग गया। सामने ही चाय की दुकान दिखायी दे गयी। हम सबने चाय पी औरगाडी को धक्*का लगाकर चलाने का प्रयास किया। गाडी चल दी, लेकिन जैसे ही ब्रेक लगाए वो फिर बन्*द हो गयी। हमने गाँव वालों से प्रार्थना की कि आप धक्*का लगा दीजिए, उन्*होंने धक्*का लगा दिया और गाडी भर्र से चल दी। गाडीतो लोगों के धक्*के से चल दी लेकिन चाय वाले को पैसा तो दिया ही नहीं। अब क्*या करें? गाडी रोक नहीं सकते। भगवान को उत्तरदायी बनाकर हम निश्चिंतता से आगे चल दिए। परीक्षा अभी बाकी थी। उस साल उस रेगिस्*तान में भी बाढ़ आयी थी तो सड़के तो माशाअल्*लाह थी ही, साथ में पानी के साथ नदी के गोल-गोल पत्*थर भी रास्*ते में आ गए थे। इतने में हीभेड़-बकरियों के झुण्*ड ने हमारी गाडी को फिर रोक दिया। किससे धक्*का लगवाएं? अब पुरुषों ने स्*वयं ही धक्*का लगाया और दौड़करगाडी में बैठ गए। ऐसी प्रक्रिया कई बार करनी पड़ी और गाडी के फाटक भी हाथ में आने को तैयार हो गए। लेकिन विकट स्थिति तो तब पैदा हुई जब एक सूखी नदी रास्*ते में आगयी। उसके गोल-गोल पत्*थरों से गाडी फिर रुक गयी। इस बार बोनट खोलकर जाँच कर ली गयी और धक्*का लगाकर जैसे ही गाडी ने चार कदम बढ़ाए कि विपक्ष की तरह बोनट खुलकर तन गया। अब गाडी को रोके तोमुश्किल और ना रोके तो बोनट को कैसे नीचे बिठाए? एक साथी ने क्*लच पर पैर रखा और एक साथी ने अपनी लम्*बी टांगों को खिड़की से बाहर निकाला और जोर से पैर को बोनट पर पटक दिया। बोनट बन्*द हो गया और गाडी भी नहीं रुकी। खुशी की लहर दौड गयी। दिन होते-होते इसी प्रकार गाडी से जूझते हुए हम नागौर पहुंचे और वहाँ उसे पक्*कीतौर पर ठीक कराने का प्रण लिया। कई घण्*टे लगे, लगे तो लगे, लेकिन रात होने से पहले हम कम से कम जोधपुर तो पहुंच जाएं। विधाता नेचाय की कीमत वसूलने की ठान रखी थी। मण्*डोर पहुंचते-पहुंचते तोहमारी गाडी ऐसी हो गयी थी कि उसे एक थैले में भरकर ले जाया जाए। चारों फाटक लटक चुके थे। मण्*डोरपहुंचकर तो गाडी ने बिल्*कुल ही हथियार डाल दिए। अब तो उसे दूसरी गाडी के सहारे खेचने के सिवाय हमारे पास कोई चारा नहीं था। जैसे-तैसे जोधपुर पहुंचे। एक मित्र के यहाँ गए, वे भी अचानक ही छ: लोगों को आया देख घबरा गए।
उनकी पत्*नी ने हँसकर स्*वागत तोकिया लेकिन दबे स्*वर में बता भी दिया कि आज ही नौकर गाँव गया है। इतने लम्*बे सफर के बाद भी हमारी जिन्*दादिली में कोई कमी नहीं आयी थी। हमने उनसे हँसकर कहा कि आप चिन्*ता ना करें। आपकी सहायताके लिए तीन पढ़ी-लिखी शहरी बाइयांआयी हैं। सब काम फटाफट निबटा देंगी। वे भी दिल खोलकर हँस दी औरहमें बड़े ही प्*यार से रात का खाना खिलाया। हमने बस की टिकट खरीदी और उदयपुर के लिए रवाना हो गए। जिन मित्र की गाडी थी, उन्*हें अकेला छोड़कर। हाँ चाय वाले के पैसे मेरे पतिदेव ने आखिर भेज ही दिए। उनका एक रोगी उसी मार्ग पर ट्रक चलाता था तो उसने वह जगह पहचान ली और बाकायदा पैसे उस चाय वाले तक जा पहुंचे
good story
ReplyDeletenice article
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